सोमवार, 13 जून 2016

बनारस ! तू मेरा प्यार है..

आज जो लौटा अपने बनारस तो लगा की जान में जान आई है... खुद से खुद का तार्रूफ कराने का सा अहसास हुआ। लगा कि मैं फिर से जी गया.. अपने शरीर में ही मूर्छित सा मैं था अब तक.. जो बनारस की मिट्टी को छुआ तो लगा जैसे संजीवनी मिली..।

कैंट से विद्यापीठ, सिगरा, रथयात्रा और भेलूपुर का रास्ता... इस कदर लोगों से खचाखच भरा था.. मानो मेरे आने की भनक से ही सब इकट्ठे हुए हों... मेरे ही स्वागत को जुटे हैं लोग... बेशूमार भीड़, गांड़ियों की पों-पों, कहीं मधुर शब्दों में भो....ड़ी का जोरदार उच्चारण... ये सब स्वाद सिर्फ बनारस ही दे सकता है... भले ही विकास के खांचे में कोई शहर कितना भी आगे निकल जाए मगर वो एक बनारसी को नहीं लुभा सका, तो उसका विकास बे-स्वाद सा लगता है...

आगे जब भेलूपुर चौराहे से विजया सिनेमा (जो अब आईपी विजया है) की ओर मुड़ा तो बाहें फैलाये शहर की सड़कें.. मेरा आलिंगन करने को बेताब दिखी... बनारस लौटकर आने से बड़ा सुख कोई नहीं..

लौंटा जो शहर में, तो यूं ही सारी पुरानी यादें अचानक मेरे जहन में कौंध गईं.. यहीं तो थीं वो सड़कें जहां बचपना खेल में बीता। इन्हीं गलियों में यारों-दोस्तों के बीच सारे त्यौहार मने..। आज सब कुछ वैसा है पर बस इन सब में मैं ही दूर हूँ.. एक यात्री की तरह बस शहर में घूमने आता हूँ.. या यूँ कहो कि शहर से दूर जितने पाप कमाता हूँ उन्हें ही काटने आता हूँ। बनारस मीलों में जरूर दूर हैं मगर जज्बातों और खयालों में ये मेरे साथ-साथ है..

सोनारपुरा, केदारनाथ गली, दशाश्वमेध, शिवाला और अस्सी ये वो स्थान हैं जिनका बखान किए बिना बनारस को मेरे नजरिए से नहीं जाना जा सकता। इन जगहों का ये आलम है कि यहां की हवाओं में महबूब की सी खुशबू आती है.. पता है, ना अब वो दिन हैं, ना ही उन दिनों की सी कोई बात.. मगर मेरी कल्पना ही सही.. यहां की गलियों में, घाटों पर आज भी यादों का वो जमघट मिल जाएगा। सोच तो ये भी है कि घाटों की सीढियां, गंगा की लहरें और मन्दिर की घण्टियाँ ये उन यादों से ही तो अलंकृत हैं... ये शोर आध्यात्म का, मेरे लिए शहर का प्रेम ही तो है.. शहर बदल गया है और लगातार बदल भी रहा है.. मगर शहर का हर कोना पुरानी यादों से लिपटा है, जो बता रहा है कि मैं आज भी यहां की फिजाओं में कहीं बसा हुआ हूँ।

बनारस.. जिसकी सोच ही व्यक्ति को पावन कर दे.. उस शहर को दिल-ओ-दिमाग में संजोए रखने वाला मैं किसी तीर्थ यात्री से कम थोड़े ही हूँ। बाबा भोलेनाथ, काल भैरव महाराज, संकटमोचन हनुमान जी और मां दुर्गा का मंदिर.. ये वो स्थान हैं जहां से मेरी हर यात्रा का प्रारम्भ हुआ और मेरे हर सफर का पड़ाव भी यहीं इनके चरणों में निमित्त रहा... इतनी अनुकम्पाओं के बाद भी बनारस तेरी कमी उस दिन खूब अखरती है जब मेरे माथे पर तिलक करने वाला कोई नहीं होता.. मैं शहर से दूर विकास की घटनाओं में घुटा सा जी रहा होता हूँ.. मेरे सूने से माथे पर ना मां के हाथ थाप देते.. और ना ही महादेव के नाम पर चंदन तिलक लगाने का सुख मिलता.. हां, सरे राह पंडित जी मिलते हैं माथे पर तिलक लगाने का कोरम भी पूरा करते हैं... बस इसी अहसास को पावन मानकर खुश हो लेता हूँ कि तू नहीं तेरा नाम सही.. माथे पर चंदन लगने के इस एक सोच से ही मेरी थकान को भी आराम मिलता है.. फिर तेरी ही याद का सुरूर लिए तेरा ये घुमक्कड़ सा आवारा बाशिंदा अपनी निगाहों को आराम देता है, कि कल फिर जब ये जगेगा तो सुबह-ए-बनारस से शहर को छानता हुआ शाम के पहर मां गंगा की आरती से तृप्त होगा।

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