शनिवार, 7 मई 2016

भयावह ख्वाब...

आज फिर डर गया विभत्स्य ख्वाब देख कर,
कि मेरी कलम थी टंगी..
साहूकार के यहां चंद सिक्कों के दाम पर।
फिर क्या,
हांथ भींचे, आंख मीचे, झट से मैं तो उठ गया।
इस ख्वाब की ताबीर पर भी, आंसू भर-भर रो गया।

है क्या इसमें हकीकत ये तो केवल ख्वाब था,
पर इस कल्पना ने ही खयाल सारे धो दिये।
ख्वाब थे पाले मैंने भी क्या, खूब नाम कमाउंगा,
इस शब्दलोक की भूमि पर, धन-धान्य जुटाउंगा।

ख्वाब टूटे, हांथ छूटे, जग सारा बैरी हो गया,
होकर निराश मन, मैं शून्य व्योम में खो गया।
चाह थी जो बसी उच्च शिखर पर जाने की,
उसमें थोड़ी फांस गड़ी और कलम चिरंतन सो गया।

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