रविवार, 1 नवंबर 2015

सूर्य की उपासना का महापर्व ‘छठ पूजा’


भारतीय संस्‍कृति में त्‍यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्‍ठान मात्र नहीं हैं, बल्‍कि जीवन का एक अभिन्‍न अंग हैं। त्‍यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्‌दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्‍व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्‍कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के दूसरे पखवाड़े में पड़ने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। यह त्‍यौहार इस अवसर पर प्रत्‍यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्‍य हृदय स्‍तोत्र से स्‍तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्‍मा, विष्‍णु, शिव, स्‍कन्‍द, प्रजापति, इन्‍द्र, कुबेर, काल, यम, चन्‍द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं।

छठ पर्व सूर्य की उपासना का पर्व है। वैसे भारत में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। सूर्य अर्थात सविता की संचित शक्ति का रूप षष्ठी देवी हैं जिन्हें छठी मइया से संबोधित किया जाता है। सविता की शक्तियाँ ही सावित्री और गायत्री माँ हैंजिनसे जीवन की सृष्टि और पालन होता है। सावित्री के पश्चात जीवों के पालन हेतु षष्ठी के दिन ही माँ गायत्री प्रक़ट हुईं। विश्वामित्र ऋषि के मुख से गायत्री मंत्र षष्ठी के दिन ही प्रष्फूटित हुआ था।

पर्व के प्रारम्‍भिक चरण में प्रथम दिन व्रती स्‍नान कर के सात्‍विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे नहाय खायकहा जाता है। वस्‍तुतः यह व्रत की तैयारी के लिए शरीर और मन के शुद्धिकरण की प्रक्रिया होती है। सुबह सूर्य को जल देने के बाद ही कुछ खाया जाता है। लौकी की सब्‍जी और चने की दाल पारम्‍परिक भोजन के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरे दिन सरना या लोहण्‍डा व्रत होता है, जिसमें दिन भर निर्जला व्रत रखकर शाम को खीर रोटी और फल लिया जाता है। इस दिन नमक का प्रयोग तक वर्जित होता है। तीसरा दिन छठ पर्व में सबसे महत्‍वपूर्ण होता है। संध्‍या अर्घ्‍य में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर महिलाएँ घरों में ठेकुआ, पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की सजावट आदि में जुटते हैं और सूर्यास्‍त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा हो जाते हैं।

सूर्यदेव जब अस्‍ताचल की ओर जाते हैं तो महिलायें पानी में खड़े होकर अर्घ्‍य देती हैं। अर्घ्‍य देने के लिए सिरकी के सूप या बाँस की डलिया में पकवान, मिठाइयाँ, मौसमी फल, कच्‍ची हल्‍दी, सिंघाड़ा, सूथनी, गन्‍ना, नारियल इत्‍यादि रखकर सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है- ऊँ ह्रीं षष्‍ठी देव्‍यै स्‍वाहा। इसके बाद महिलाएँ घर आकर 5 अथवा 7 गन्‍ना खड़ा करके उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। इसे कोसी भरना कहते हैं। निर्जला व्रत जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अन्‍तिम एवं चौथे दिन सूर्योदय अर्घ्‍य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन आरम्‍भ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही सूर्यदेव को गाय के कच्‍चे दूध से अर्घ्‍य दिया जाता है एवं इसके बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं। प्रसाद लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं।

सूर्य की कठिन साधना और तप के इस पर्व में दुख और संकट के विनाश के लिए सूर्य का आह्वान किया जाता है। इस पर्व के संबंध में कई कहानियां प्रचलित हैं। एक कथा यह है कि लंका विजय के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो दीपावली मनाई गई। जब राम का राज्याभिषेक हुआ, तो राम और सीता ने सूर्य षष्ठी के दिन तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की। एक प्रसंग यह भी है कि पाण्डवों का वनवास सफलपूर्वक कट जाय इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने कुंती को षष्ठी देवी के अनुष्ठान करने का परामर्श दिया था। शकुनि के प्रपंच से जब पाण्डवों ने अपना सब कुछ खो दिया था, तो धौम्य ऋषि ने द्रोपदी से षष्ठी देवी की पूजा करवायी थी।

मूलतः बिहार और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोक रंजकता के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्‍तों में अपनी उपस्‍थिति दर्ज करा रहा है बल्‍कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्‍ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती होती है और न कोई आडम्‍बर युक्‍त कर्मकाण्‍ड। छठ पर्व मूलतः महिलाओं का माना जाता है, जिन्‍हें पारम्‍परिक शब्‍दावली में परबैतिनकहा जाता है। पर छठ व्रत स्‍त्री-पुरूष दोनों ही रख सकते हैं।

कष्टों से उबरने की लिए, संतान प्राप्ति के लिए, परिवार के कल्याण के लिए काफी विधि-विधान के साथ छठ मइया की पूजा की जाती है। कठिन उपवास के साथ अस्ताचलगामी सूर्य को और उगते  सूर्य को गंगा में या जैसी सुविधा हो , तालाब, पोखर ,कुंआ ,या घर के आँगन में जल या दूध का अर्घ्य देकर और सूप में विभिन्न प्रकार के फलों एवं ठेकुआ का प्रसाद अर्पण कर छठ मइया की पूजा की जाती है । वर्ती का चरण-स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। महिला वर्ती के हाथों से सुहागिन अपने माँगों में सिंदूर भरवातीं हैं और अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।

भारतीय संस्‍कृति में समाहित पर्व अन्‍ततः प्रकृति और मानव के बीच तादात्म्‍य स्‍थापित करते हैं। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्‌भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्‌दों को भी कल्‍याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकड़ियों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्‍हा। वस्‍तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्‍ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्‍ते को भी संजोता है।

छठ पर्व की परंपरा में वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है, जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं क्योंकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है। इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, स्किन आदि पर पड़ता है। इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि ना पहुंचे, इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। इसके साथ ही घर-परिवार की सुख-समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की खैरियत की ख्वाहिश जाहिर करती हैं।


एक ओंकार सतनाम...

इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता, इस बात की पुष्टि सभी धर्मों और उनके पवित्र पुस्तकों में भी होती है और जो इसे मानने वाला ही वास्तव में इंसान कहलाता है। भारत एक धार्मिक देश है और यहां समय-समय पर कई धर्म गुरुओं ने अपनी शिक्षा से मानवता की सेवा करने का संदेश दिया है। ऐसे ही एक धर्म गुरु हैं गुरु नानक देव जी जो सिखों के प्रथम गुरू थे।

लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित तलवंडी नामक स्थान पर संवत् 1526 (ईस्वी सन 1469) की कार्तिक पूर्णिमा के दिन उदित हुए एक सूर्य ने अपनी ऐसी किरणें बिखेरीं कि वह भारत ही नहीं विश्व भर में धर्म अध्यात्ममानवता और स्वाभिमान का अग्रदूत बन गया। तलवंडी नगर (वर्तमान में इसे ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है) के प्रधान पटवारी कल्याण दास मेहता (कालू खत्री) के यहां गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम तृप्ता देवी तथा बडी बहिन का नाम नानकी था। अत: नानकी के छोटे भाई होने के कारण नवजात बालक का नाम नानक रखा गया। बचपन में जब गुरु नानक देव जी स्थानीय पंडित के पास पढ़ाई करने नहीं गएतो उनके पिता ने उन्हें गाय-भैंसें चराने के लिए जंगल में भेज दिया। जंगल में जाकर गाय-भैंसें चरते-चरते स्थानीय जमीदार राय बुलार के खेतों में घुस गए और थोड़ी ही देर में सारे खेत चट कर गए। राय बुलार को गुस्सा आया और उन्होंने आदमी भेजकर कालू मेहता को बुलवाया। कालू मेहता और नानकी देवीजो कि उनकी बड़ी बहन थींअपने नानक की इस करतूत से बहुत खफा हुए और उन्हें ढूंढने के लिए जंगल में निकल पड़े। जंगल में जाकर देखा कि नानक जी एक मेड के सहारे लेटे हुए ध्यान मग्न हैं और एक काला कोबरा उनके पीछे से आकर फन फैलाए हुए चेहरे पर छाया किए सामने है। जैसे ही कालू मेहता और नानकी वहां पहुंचे सांप अन्तरध्यान हो गया। घर वालों को उस दिन पता लगा कि नानक दैवी शक्ति से युक्त कोई अवतारी सन्त हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जब भी संसार में अनाचार फैलता हैअवांछित तत्वों से साधारण जन परेशान हो जाते हैंतब समाज को दिशा देने के लिए किसी न किसी महापुरुष का पदार्पण होता है। उन्हीं महान आत्माओं में से एक थे गुरु नानक देव। समाज में समानता का नारा देने के लिए उन्होंने कहा कि ईश्वर हमारा पिता है और हम सब ही उसके बच्चे हैं। पिता की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। वही हमें पैदा करता है और वही हमारा पेट भरने के लिए अन्न भेजता है। इसी प्रकार गुरु नानक भी जात-पात के विरोधी थे। उन्होंने समस्त हिन्दू समाज को बताया कि मानव जाति तो एक ही हैफिर जाति के कारण यह ऊंच-नीच क्यों?  गुरु नानक देव जी ने कहा कि तुम मनुष्य की जाति पूछते होलेकिन जब व्यक्ति ईश्वर के दरबार में जाएगा तो वहां जाति नहीं पूछी जाएगी। सिर्फ उसके कर्म देखे जाएंगे। इसलिए आप सभी जाति की तरफ ध्यान न देकर अपने कर्मों को दूसरों की भलाई में लगाओ।
बचपन से ही बालक नानक साधु संतोंगरीब व असहायों की सेवा व सहायता के लिए तत्पर रहते थे। गुरु नानक देव जी का सम्पूर्ण जीवन और उनकी शिक्षाएं विश्व के लिए एक अमूल्य निधि और जीवन जीने का मूल मंत्र बना। नानक सच्चे दिल के थे। बारह वर्ष की आयु में ही उनका विवाह सुलक्षिणी देवी से करा दिया गया जिनसे श्रीचन्द और लक्खी दास नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए किन्तु सांसारिक बंधन उन्हें बाध न सके। उन्होंने गुरू की गद्दी पर अपने किसी परिजन को न बिठा कर उसके योग्य अपने एक साथी लहणा को बिठाया था जिसके संस्कार बड़े ऊंचे थे। ये लहणा भाई जी ही आगे चलकर गुरू अंगद देव जी के नाम से सिखों के दूसरे गुरू कहलाए। सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक जी की सम्पर्ण काव्यमय वाणी गुरु ग्रन्थ साहिब के जपुजी साहिब खण्ड एक के मुताबिककार्तिक पूर्णिमा के दिन ही सिखों के आदि गुरु सन्त श्री नानक देव जी की जयन्ती और प्रकाश पर्व मनाया जाता है। इन्होंने लगभग 974 शब्द और 19 राग लिखे हैं। उनके सभी शब्द और राग अनन्त भक्तिमय हैं और निराकार परमेश्वर की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं। गुरुवाणी के शुरू में उन्होंने सबसे पहले जो दोहा लिखा है वह इस प्रकार है-

ओम् सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरू।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।
अर्थात ओमकार रूपी परमेश्वर का एक ही नाम है और यही सत्य है। वह सम्पूर्ण सृष्टि का करता पुरुष है। यह ब्रह्माण्ड उसी परमेश्वर के इशारे पर चल रहा है। वह निर्भय हैउसका किसी से वैर नहीं है। उसकी कोई मूर्ति नहीं हैउसका कोई रूप या आकार नहीं है। वह अजन्मा हैअर्थात परमात्मा योनि और जन्म-मरण से रहित है। और उस परमात्मा को पाना गुरु की कृपा पर ही निर्भर करता है।

एक ओंकार सतनाम
नानक बचपन से ही प्रतिदिन संध्या के समय अपने मित्रों के साथ बैठकर सत्संग किया करते थे। उनके प्रिय मित्र भाई मनसुख ने सबसे पहले नानक की वाणियों का संकलन किया था। कहा जाता है कि नानक जब वेईनदी में उतरेतो तीन दिन बाद प्रभु से साक्षात्कार करने पर ही बाहर निकले। ज्ञान प्राप्ति के बाद उनके पहले शब्द थे- एक ओंकार सतनाम। नानक देव जी अपनी गुरुवाणी जपुजी साहिब में कहते हैं कि नानक उत्तम-नीच न कोई! अर्थात ईश्वर की निगाह में सब समान हैं। यह तभी हो सकता हैजब व्यक्ति ईश्वर नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता है। गुरु नानक साहब हिंदू और मुसलमानों के बीच एक सेतु थे। हिंदू उन्हें गुरु और मुसलमान पीर पैगम्बर के रूप में मानते हैं। भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य के अनुसार गुरु नानक देव जी एक रहस्यवादी संत और समाज सुधारक थे। जीवन भर देश विदेश की यात्रा करने के बाद गुरु नानक अपने जीवन के अंतिम चरण में अपने परिवार के साथ करतापुर बस गए थे। गुरु नानक ने 25 सितंबर, 1539 को अपना शरीर त्यागा। जनश्रुति है कि नानक के निधन के बाद उनकी अस्थियों की जगह मात्र फूल मिले थे. इन फूलों का हिन्दू और मुसलमान अनुयायियों ने अपनी अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुसार अंतिम संस्कार किया।

गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में मुख्यत: तीन बातें हैं। पहला जप यानी प्रभु स्मरणदूसरा कीरत यानी अपना काम करना और तीसरा जरूरतमंदों की मदद। गुरु नानक की शिक्षा में सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने हमेशा लोगों को प्रेरित किया कि वह अपना काम करते रहे। उनके अनूसार, आध्यात्मिक व्यक्ति होने का यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति को अपना काम-धंधा छोड़ देना चाहिए।

लंगर
गुरु जी ने अपने उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की। इसी कारण जात-पात को समाप्त करने और सभी को समान दृष्टि से देखने के भाव से ही अपने अनुयायियों के बीच लंगर की प्रथा शुरू की थी। जहां सब छोटे-बड़ेअमीर-गरीब एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। आज भी दुनिया भर के तमाम गुरुद्वारों में उसी लंगर की व्यवस्था चल रही हैजहां हर समय हर किसी को भोजन उपलब्ध होता है। इसमें सेवा और भक्ति का भाव मुख्य होता है।

संगत
जातिगत वैमनस्य को खत्म करने के लिए गुरू जी ने संगत परंपरा शुरू की। जहां हर जाति के लोग साथ-साथ जुटते थेप्रभु आराधना किया करते थे। कथित निम्न जाति के समझे जाने वाले मरदाना को उन्होंने एक अभिन्न अंश की तरह हमेशा अपने साथ रखा और उसे भाई कहकर संबोधित किया। इस प्रकार तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु जी ने इस क्रांतिकारी कदमों से एक ऐसे भाईचारे को नींव रखी जिसके लिए धर्म-जाति का भेदभाव बेमानी था।

गुरुनानक देव जी के दस उपदेश :-
1- ईश्वर एक है।
2- सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
3- ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।
4- ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
5- ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
6- बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं।
7- सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
8- मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
9- सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
10- भोजन शरीर को ज़िंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।

मातहतों पर मेरहबानी

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप का मुद्दा उठाकर अप्रत्क्ष रूप से कम योग्य व्यक्तियों को व्यवस्था में स्थापित करने के अभियान पर तंज कसा है। वैसे भी श्रेष्ठता का अपना मानक होता है जो किसी भी सांचे में फिट बैठ जाता है और अपनेहुनररुपी पंख से लम्बी उड़ान के लिए तैयार रहता है। लेकिन जब सत्ता का विकेन्द्रीकरण होता है तो ये सभी मानक धरे के धरे रह जाते हैं और संस्थानों पर अपने लोगों के बैठाने की कवायद जोर पकड़ लेती है। ऐसे में ना तो योग्य व्यक्तियों का चयन हो पाता है ना ही तजुर्बे को तरज़ीह मिल पाती है।

मातहतों को लाभ पहुँचाने के क्रम में सरकार द्वारा योग्यता और अनुभव को दरकिनार किया जा रहा है। इस तरह की अगर एकाध घटना होती तो शायद इसे संयोग माना जा सकता था। मगर पिछले कुछ महीनोंकी गतिविधियों पर नजर डालें तो साफ तौर पर प्रतीत होता है कि विभिन्न शैक्षणिक एवं सांस्कृतिकसस्थानों पर सत्ता समर्पित लोगों की नियुक्तियों का दौर चल रहा है। एफटीआईआई (फिल्म एण्ड टेलीविजन इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डिया) के अध्यक्ष पद पर गजेन्द्र चौहान जैसे शख्स को बिठाकर सरकार ने इसका प्रमाण भी दिया है। जबकि वर्ष 2014 में अनुमानित नामों की सूची में अमिताभ बच्चन और अनुपम खेर जैसे ज्यादा ख्यातिप्राप्त और अनुभवी लोग शामिल थे। सरकार के इस फैसले पर राजनीतिक दलों के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक संगठनों ने निशाना भी साधा था। फिल्म जगत की नामचीन हस्तियों के अलावा कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने भी सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताई थी। हालांकि सरकार की तरफ से मोर्चा सम्भालते हुए केन्द्र सरकार के एक मन्त्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने सधा सा जवाब दिया था।स्थिति को स्पष्ट करते हुए राठौर ने कहा कि एफटीआईआई के अध्यक्ष पद पर सिर्फ अनुभव और शख्सीयत के आधार पर ही नहीं बल्कि पर्याप्त समय देने की उपलब्धता के तौर पर नियुक्ति की गयी है। उनकी माने तो इस पद पर जिन लोगों के नाम प्रस्तावित थे उनमें गजेन्द्र चौहान ही ऐसे शख्स थे जो एफटीआईआई को पर्याप्त समय देने में सक्षम थे।

देखा जाये तो कमोबेस यही हाल अन्य सस्थाओं का भी रहा। सेंसर बोर्ड भी राजनीतिक हस्तक्षेप से अछूता नहीं रहा है। पूर्व में सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष रहीं लीला सैमसन को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। लीला सैमसन को पहला झटका फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉडको सेंसर बोर्ड के ट्रीब्यूनल द्वारा मंजूरी देने से लगा, जबकि लीला ने फिल्म के कुछ भाग पर आपत्ति जतायी थी। उसके बाद बोर्ड के कुछ सदस्यों पर घूस लेने का भी आरोप लगा लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होने की खीझ में उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लीला सैमसन के इस्तीफे के बाद फिल्म निर्माता पहलाज निहलानी को सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया।

ऐसा ही एक मामला आईआईटी मुम्बईमें भी देखने को मिला। प्रमुख वैज्ञानिक अनिल काकोदर ने मानव संसाधन विकास मन्त्रालय के साथ मतभेदों के बाद आईआईटी मुम्बई के संचालक मण्डल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।काकोधर ने आईआईटी संस्थानों में निदेशकों की चयन प्रक्रिया पर सवाल भी खड़े किये थे। जिसके जवाब में मानव संसाधन विकास मन्त्री स्मृति ईरानी ने चयन प्रकिया को कानूनी तौर पर सही ठहराते हुए काकोधर के आरोपों को निराधार बताया था। इतना ही नहीं, पिछले वर्ष दिसम्बर माह में आईआईटी दिल्ली के निदेशक आर. शेवगांवकर को भी मानव संसाधन विकास मन्त्रालय के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा था। आज इन जगहों पर सरकार द्वारा कम अनुभवी लोगों को पदस्तकिया जा रहा है, इनके पास ना तो  संस्थानों को संचालित करने की पर्याप्त योग्यता है और ना ही काबिलियत।

औसत योग्यता को तरजीह देने का मामला यहीं समाप्त नहीं होताहै बल्कि आईएचआरसी सहित कई अन्य शैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थानों में भी सत्ता के संरक्षण में अपने मातहतों को आगे बढ़ाये जाने को लेकर सवाल उठे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह मामला तकनीकी खामियों का नहीं बल्कि सस्थाओं पर सत्ता से संचालित होने वाले व्यक्तियों के थोपने का है। सरकार चाहे तो बेहतर बौद्धिक ऊर्जा और योग्य व्यक्तियों के इस्तेमाल से इन संस्थाओं का कायाकल्प कर सकती है लेकिन इसके लिए बेहतर सोच और मजबूत इच्छा शक्ति का अभाव सा दिख रहा है।   

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