गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

घाट बनारस और चाय का कुल्हड़

"जिन्दगी आसान है, आसान से उपाय..
जब कभी थकान हो, मुंह लगाये चाय..
मिले कड़क स्वाद में जो सौंधी खुशबू...
तो तन-मन के सब घाव भर जाय..

नहीं मशहूरी, नहीं विलायती...
हमें तो भाती देशी चाय..
घर की तो बात अलग है..
दिल को भाये नुक्कड़ की चाय..

एक आवाज में कुल्हड़ आता,
लेत चुस्किया दिन बना जाता..
है घाट किनारे अपनी ठाठ
जहां दोस्त जोहते अपनी हाट

हाल क्या अपना अब बतलाए,
कागज का कप है, पानी सी चाय..
ना अब चाय की प्याली कुल्हड़ है,
ना अब मेरी हरकतें अल्हड़ हैं..

अब सादे से वेश में सादा सा आदमी हूं,
और चाय के नाम पर पीता बस चासनी हूं..
ना स्वाद है, ना रंग है.. ना ही वो बात है..
बस उलझने के दौर में जिंदगी बिसात है..

दिन वो फिर बहुरेंगे, फिर से शामें घाट पर होंगी,
फिर कुल्हड़ हाथों में होगा, मन में फिर मिठास घुलेगी,
रंग जमेगा, महफिल होगी.. लहरों में भी रवानी होगी..
जब बैठ घाट पर बतकच्चन में, दिन से शाम सुहानी होगी.."

होली और राजनीति

होली का अवसर है देखो, सबपे चढ़ा है भंग,
गोरे-काले सभी चेहरों पर पुता हुआ है रंग..
कोई सफेदा चेहरा लेकर मन की कालिख धोले,
तो कोई रंगबोर शक्ल में, मन की गांठे खोले..

राजनीति का दांव है देखो लोकसभा पर आया,
कोई कांग्रेस, कोई केजरी, कोई सपा का लगा रहा जयकारा,
तो कहीं बिसात पर बिछी हुई है थर्ड फ्रन्ट की गोली,
पर इन सब पर भारी यारों, नमो-नमो की टोली..

जंग छिड़ी काशी में भइया अबकी पार लगइयों,
ना जीता जो कोई सरीखा, तो फिर मुजफ्फर होइयो,
भय के कोपल में भी उनपर सबका विश्वास टिका है,
कि जिसका सफ़र सोम से काशी में आकर रुका है..


अब एक बंद उन वीरों के लिए जिन्हें इतिहास रचना है....
भंग के रंग में मलंग चाल देखो,
काशी के छोरों की मतंग ढ़ाल देखो,
होइहैं जो ऊंहा सब, उनके हाथ होगा,
एही बात जान के बनारसी मस्त होगा..

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