मंगलवार, 28 मई 2013

पुराना नाता है क्रिकेट और फिक्सिंग का

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार की रेलम-पेल के बीच खेलों में उठे फिक्सिंग विवाद ने विश्व की नज़रों में भारत को काफी शर्मसार किया है। रेलगेट और कोलगेट के चलते हाल के दिनों में भारतीय राजनीति में भूचाल थमा नहीं था कि क्रिकेट के दंगल आईपीएल में भ्रष्टाचार उजागर हो गया। आईपीएल की टीम राजस्थान रॉयल्स के क्रिकेटर श्रीसंत, अंकित चव्हाण और अजीत चंदीला को आईपीएल मैचों के दौरान स्पॉट फिक्सिंग के आरोपों में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मामले की तहकीकात चल रही है। जिस तरह भारतीय राजनीति जीप घोटाले से लेकर 2जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला और रेल घोटाला से यदाकदा कलंकित होती रही है। उसी तरह क्रिकेट के दामन पर भी लगातार दाग लगते रहे हैं।
आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग में तो पैसे की बरसात पहले से ही हो रही है क्योंकि इसके हर सीजन की कमाई अरबों में होती है। जिससे बीसीसीआई, टीमों के मालिक और क्रिकेटर हर साल माला माल हो रहे हैं। नामचीन क्रिकेटरों से लेकर गुमनामी में खोए क्रिकेटरों को भी कमाई करने का भरपूर मौका मिलता है लेकिन किसी क्रिकेटर की बोली करोड़ों में लगती है तो किसी की कुछ लाख तक ही। ऐसे में कम धन प्राप्त करने वाले क्रिकेटरों की चाहत अपने साथी क्रिकेटरों की तरह ज्यादा धन कमाने की इच्छा होती है। उनकी इच्छा को बल, तब और मिल जाता है जब कोई सटोरिये उनसे स्पॉट फिक्सिंग कर लाखों करोड़ों कमाने का आसान जरिया बता देता है। इसी गिरफ्त में फंसकर ये क्रिकेटर वो कर बैठते हैं जिससे क्रिकेट दागदार हो जाता है।
क्रिकेट में फिक्सिंग कोई नया नहीं है। इसका जाल विश्व स्तर पर फैला हुआ है। पहली बार 1994 में पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कप्तान सलीम मलिक पर मैच फिक्स करने और ऑस्ट्रेलिया के पाकिस्तान दौरे पर शेन वार्न और मार्क वा को लचर प्रदर्शन करने के लिए पैसे की पेशकश का आरोप लगा। ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी शेन वॉर्न और मार्क वॉ पर 1994 में ही श्रीलंका दौरे के दौरान सटोरियों को पिच और मौसम के बारे में जानकारी देने का आरोप लगा उन्हें जुर्माना भी भरना पड़ा।
उसके बाद फिक्सिंग का सिलसिला चल पड़ा। 1996 में भारतीय क्रिकेट टीम के मैनेजर सुनील देव ने कुछ भारतीय क्रिकेटरों पर मैच फिक्सिंग के लिए पैसे मांगने का आरोप लगाया। 1997 में मनोज प्रभाकर ने साथी क्रिकेटरों पर 1994 के श्रीलंका दौरे के दौरान फिक्सिंग कराने के लिए 25 लाख रुपए दिलाने का आरोप लगाया।
1998 में पाकिस्तानी गेंदबाज अताउर रहमान और वसीम अकरम पर न्यूजीलैंड के खिलाफ खराब गेंदबाजी करने के लिए तीन लाख डॉलर की पेशकश करने का आरोप लगा। 1998 में पाक क्रिकेटर राशिद लतीफ ने वसीम अकरम, सलीम मलिक, इंजमाम उल हक और एजाज अहमद पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगाया। 1998 में शेन वार्न और मार्क वा ने माना कि उन्होंने वर्ष 1994 में श्रीलंका में खेले गए सिंगर कप के दौरान मौसम और पिच की जानकारी सट्टेबाज को बेची थी।
2000 में दिल्ली पुलिस ने दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोन्ये पर भारत के खिलाफ वनडे मैच में फिक्सिंग कराने का आरोप लगाया। हर्शेल गिब्स, पीटर स्ट्राइडम और निकी बोए पर भी उंगलियां उठी थीं। क्रोन्ये ने स्वीकार किया था कि उन्होंने भारत में खेली गई एक दिवसीय सीरीज के दौरान अहम सूचनाएं 10 से 15 हजार डॉलर में बेचीं। अप्रैल 2000 में अफ्रीकी टीम के भारतीय टीम से 1994 में मुंबई में खेले गए एक मुकाबले में दो लाख पचास हजार डॉलर लेकर मैच हारने का खुलासा हुआ।
2000 में ही मनोज प्रभाकर ने कपिल देव पर आरोप लगाया कि उन्होंने ही 1994 में श्रीलंका में खेले गए मुकाबले में पाकिस्तान के खिलाफ खराब प्रदर्शन करने को कहा था। इसी साल पाकिस्तान की एक न्यायिक जांच समिति ने पूर्व कप्तान मलिक मुहम्मद कयूम और गेंदबाज अताउर रहमान पर फिक्सिंग करने की पुष्टि की। दोनों पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया था। फैसले में कहा गया कि अकरम और मुश्ताक अहमद भविष्य में कभी भी टीम के कप्तान नहीं बनाए जाएंगे। जून 2000 में अफ्रीकी खिलाड़ी हर्शेल गिब्स ने स्वीकार किया था कि उनके एक पूर्व कप्तान ने उन्हें भारत में खेले गए एक मुकाबले में 20 से कम रन बनाने को कहा था। इसके बदले में उन्हें 15 हजार डॉलर दिए गए।
2000 में ही दक्षिण अफ्रीका के क्रिकेट प्रमुख अली बशिर ने खुलासा किया था कि पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व सीईओ माजिद खान ने उन्हें बताया है कि विश्व कप-1999 के दो मैच पहले से ही फिक्स थे। ये मैच पाकिस्तान ने भारत और श्रीलंका के खिलाफ खेले थे। जून 2000 में क्रोन्ये ने कहा कि उन्होंने एक मैच में फिक्सिंग के लिए एक लाख डॉलर लिए थे। मगर मैच फिक्स नहीं किया। जुलाई 2000 में आयकर विभाग ने कपिल देव, अजहरुद्दीन, अजय जडेजा, नयन मोंगिया और निखिल चोपड़ा के माकानों पर छापे मारे। अक्टूबर 2000 में क्रोन्ये पर आजीवन प्रतिबंध लगाया गया। नवंबर 2000 में अजहरुद्दीन को फिक्सिंग का दोषी पाया गया जबकि अजय जडेजा, मनोज प्रभाकर, अजय शर्मा और भारतीय टीम के पूर्व फीजियो अली ईरानी के संबंध सट्टेबाजों से होने की पुष्टि की गई। दिसंबर 2000 में अजहरुद्दीन और अजय शर्मा पर आजीवन प्रतिबंध लगाया गया।
अगस्त 2004 में केन्या के पूर्व कप्तान मॉरिश ओडेंबे पर पांच साल का प्रतिबंध लगाया गया। उन्हें कई मैचों में पैसे लेकर फिक्सिंग करने का दोषी पाया गया था। नवंबर, 2004 में न्यूजीलैंड के पूर्व कप्तान स्टीफेन फ्लेमिंग ने दावा किया कि उन्हें एक भारतीय खेल आयोजक ने 1999 में खेले गए विश्व कप में खराब प्रदर्शन करने के लिए 3 लाख 70 हजार डॉलर की रकम पेश की थी।
2008 में मैरियन सैमुअल्स को दो साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। उन पर 2007 में भारत दौरे के दौरान एक भारतीय सट्टेबाज द्वारा फिक्सिंग के लिए पैसे लेने का आरोप सिद्ध किया गया था। 2010 में दानिश कनेरिया और मार्विन वेस्टफील्ड को काउंटी क्रिकेट में फिक्सिंग की जांच के मामले में गिरफ्तार किया गया। हालांकि बाद में उन्हें छोड़ दिया गया। अगस्त 2010 में लॉर्ड्स टेस्ट में स्पॉट फिक्सिंग में पाकिस्तानी टीम के पूर्व कप्तान सलमान बट्ट, मोहम्मद आमिर और मोहम्मद आसिफ फंसे। फरवरी 2011 में आईसीसी ने लॉर्ड्स टेस्ट में स्पॉट फिक्सिंग करने के दोषी पाकिस्तानी टीम के पूर्व कप्तान सलमान बट्ट पर 10 साल, मोहम्मद आमिर पर पांच साल और मोहम्मद आसिफ पर 7 साल के लिए प्रतिबंध लगाया।

भारत के एक निजी समाचार चैनल ने अपने एक स्टिंग ऑपरेशन में आरोप लगाया कि छह एंपायर 2012 टी-20 वर्ल्ड कप के मैच फिक्स करने को तैयार थे। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) ने श्रीलंका में हुए टी-20 वर्ल्ड कप के इन आरोपों की जांच की है। इससे जाहिर होता है हमाम में सभी नंगे हैं। जब अतंरराष्ट्रीय मैच में फिक्सिंग होता रहा है तो आईपीएल की शुरुआत पैसा कमाने के लिए ही हुई है। फिर भी खेल को खेल बनाए रखने के लिए पूरी कोशिश होनी चाहिए। अगर खेल की आत्मा मरती है तो प्रशंसकों में भारी निराशा होगी। उम्मीद है फिक्सिंग के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी और क्रिकेट एक बार फिर जेंटल मेन्स गेम बन कर उभरेगा।

आईपीएल : किरदार बदले पर हालात नहीं

आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग, जिसके छह साल के करतब ने दो शख्सीयतों को पहचान दिलायी और साथ ही उनकी मिट्टी भी पलीद कर दी। इस दौरान कई परिवर्तन भी हुए लेकिन हालात अब भी वैसे के वैसे हैं। आईपीएल अपने विवादों को पिटारे के साथ एक बार फिर अपने इतिहास को दोहराने की हद पर आ गया है। अब देखना है कि क्या ललित मोदी का सा हाल एन. श्रीनिवासन का भी होगा या फिर वह खुद को बलि होने से बचा लेंगे।
याद होगा कि किस तरह कुछ विवादों के बीच अधिकारी तो बदले गये लेकिन हालात में परिवर्तन नहीं किया गया या नहीं हुआ। बात 25 अप्रैल 2008 की, जिस दिन मुंबई में दो मैच हो रहे थे। एक ओर डीवाइ पाटिल स्टेडियम में मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच आइपीएल-3 का फाइनल मैच खेला जा रहा था, तो दूसरी ओर मुंबई के क्रिकेट सेंटर में बोर्ड के अधिकारी ललित मोदी की पारी खत्म करने की तैयारी कर रहे थे। डीवाइ पाटिल स्टेडियम में आखिरी गेंद फेंके जाने के चंद घंटे बाद बीसीसीआई का एक
ई-मेल आया और ललित मोदी को आईपीएल कमिश्नर पद से निलंबित कर दिया गया। पांच साल बाद इतिहास खुद को दोहरा रहा है। कोलकाता के ईडन गार्डन में एक ओर मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच फाइनल मैच खेला गया (जिसमें मुंबई जीत गयी)
, तो दूसरी ओर एन. श्रीनिवासन को बीसीसीआई मुखिया पद से हटाने के लिए रोडमैप तैयार हो रहा है।
वर्ष 2008 में ललित मोदी पर चौतरफा दबाव बनाया जा रहा था कि वे नैतिक जिम्मेवारी लेकर पद से इस्तीफा दे दें, लेकिन मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। अब 2013 में एन. श्रीनिवासन पर भी ऐसा ही दबाव है, देखना ये है कि क्या वो खुद इस्तीफा देते हैं, या फिर ललित मोदी के रास्ते पर चलते हैं। पांच साल में किरदार ललित मोदी से बदल कर एन. श्रीनिवासन हो गये हैं लेकिन इस बीच बोर्ड की राजनीति में कुछ नहीं बदला है। अगर फ्लैश-बैक में जाएं, तो वही टीम ओनरशिप में गड़बड़ियों की बातें, सट्टेबाजी से लेकर मैच फिक्सिंग के आरोप और बीसीसीआई आकाओं की वही जिद कि वे किसी कीमत पर अपनी कुर्सी को नहीं छोड़ेंगे।      
आइपीएल की जो नींव रखी गयी थी, उसमें मूलभूत दिक्कतें थी। 2008 में सभी ऐसे मामलों को एक-एक कर दबा दिया गया। सवाल ये हैं कि क्या 2013 में ऐसे ही एन श्रीनिवासन को हटा दिये जाने के बाद बाकी सभी फाइलें बंद कर दी जाएंगी? क्या आइपीएल में सुधार की जरूरतों की अनदेखी की जायेगी? क्या जांच एजेंसियों और कानून में बदलाव की बात को एक बार फिर से भुला दिया जायेगा? अगर ऐसा होता है, तो ललित मोदी और एन श्रीनिवासन के बाद हम फिर से 3-4 साल बाद एक ऐसे ही किरदार का इंतजार करेंगे और भारतीय क्रिकेट एक बार फिर ऐसी घटनाओं से शर्मसार होगा।
बहरहाल, एन श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन पर पुलिस का शिकंजा जैसे-जैसे कसता गया, बोर्ड के अधिकारी हरकत में आ गये। दिल्ली में बोर्ड के दो बड़े अधिकारी राजीव शुक्ला और अरुण जेटली परदे पर तो मैच फिक्सिंग को लेकर नये कानून के सिलसिले में पहले कानून मंत्री कपिल सिब्बल और खेल मंत्री भंवर जीतेंद्र सिंह से मिले, लेकिन परदे के पीछे श्रीनिवासन की बढ़ती मुश्किलों पर चर्चा और बातचीत के दौर जारी रहे- कैसे श्रीनिवासन को इस्तीफा देने के लिए मनाएं, कैसे श्रीनिवासन पर दबाव बढाया जाये, क्या हो वैकल्पिक व्यवस्था। भाजपा नेता अरुण जेटली से लेकर पूर्व अध्यक्ष शशांक मनोहर के नाम पर चचार्एं जारी हैं।
बीसीसीआई संविधान के नियम 15(5) का भी हवाला दिया जा रहा है कि मौजूदा बोर्ड अध्यक्ष को अगर हटाया जाता है, तो उसी जोन का कोई अधिकारी बोर्ड अध्यक्ष बने। लेकिन इससे पहले बोर्ड में परंपरा रही है कि दूसरे जोन के व्यक्ति का भी नाम कोई और जोन प्रस्तावित कर सकता है। शशांक मनोहर, अरुण जेटली या फिर कोई और, बीसीसीआई का अगला मुखिया कौन बनेगा, ये तो आने वाले दिनों में तय हो जायेगा, लेकिन सबसे अहम सवाल है कि क्या पुलिस हिरासत, कोर्ट-रूम से लेकर बोर्ड-रूम तक का ड्रामा खत्म होगा? इसे जानने के लिए ललित मोदी और एन श्रीनिवासन के बीच समानता को समझना जरूरी है।
2008 में जब ललित मोदी का आइपीएल से पत्ता साफ हुआ, तो उन्हें हटाने के अभियान में अहम किरदारों में एक एन श्रीनिवासन रहे। ललित मोदी ने तमाम नियमों को धता बताते हुए जब आइपीएल मॉडल को साकार कर दिखाया, तो बोर्ड के बड़े अधिकारी चुप्पी साधे रहे। इंडियन प्रीमियर लीग जैसे-जैसे कामयाब होता चला गया, ललित मोदी का रुतबा बढ़ता चला गया। आखिरकार जब मोदी के खिलाफ मामला खुला, तो सभी लामबंद हो गये। सवाल ये है कि बोर्ड के बड़े नाम उस वक्त क्यों चुप रहे, जब मोदी गलतियों की बुनियाद पर आइपीएल की नींव रख रहे थे? चलो माना कि एक बार गलती हो गयी लेकिन श्रीनिवासन के मामले में भी ये गलतियां कैसे दोहरायी गयीं? वे चुप क्यों रहे, जब बोर्ड के इस नियम की धज्जीयां उड़ायी गयी कि बोर्ड का मौजूदा अधिकारी बोर्ड से संबंधित किसी प्रॉफिटेबल वेंचर में शामिल नहीं हो सकता, यानी आइपीएल टीम नहीं खरीद सकता है?
बोर्ड अधिकारी तब क्यों चुप रहे, जब कोर्ट में श्रीनिवासन के खिलाफ कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट यानी हितों में टकराव का मुद्दा आया और श्रीनिवासन ने टीम को अपने रिश्तेदार या करीबी के नाम कर दिया, आरोप के मुताबिक वो करीबी मयपन्न थे। वे चुप क्यों रहे, जब कथित तौर पर चेन्नई सुपरकिंग्स को फायदा पहुंचाने के लिए अंपायरों को बदले जाने और ऑक्शन में धांधली की खबरें आयीं? वे चुप क्यों रहे जब आइपीएल में एक टीम के मालिक बोर्ड के मुखिया थे, बोर्ड का ब्रैंड एंबेसडर के श्रीकांत टीम के चीफ सेलेक्टर थे और उनका बेटा अनिरुद्ध श्रीकांत उसी टीम से खेल रहा था? वे चुप क्यों रहे, जब तेलंगाना विवाद की वजह से हैदराबाद के मैच तो डेक्कन चार्जर्स से छीन लिये गये, लेकिन श्रीलंका के क्रिकेटरों के खेलने पर मनाही के बावजूद चेन्नई में चेन्नई सुपरकिंग्स के मैच कराये गये?
सवाल यहीं खत्म नहीं होते। वे चुप क्यों थे जब आइसीसी एंटी करप्शन यूनिट से लेकर फेडेरेशन ऑफ इंटरनेशनल क्रिकेटर्स एसोसिएशन ने आइपीएल समेत प्राइवेट लीग में मैच फिक्सिंग का अंदेशा जताया और इसे रोकने के लिए मजबूत प्रतिक्रिया अपनाये जाने का सुझाव दिया? वे चुप क्यों रहे जब टिम मे को चुना गया और फिर धमकी देकर दोबारा चुनाव करा कर श्रीनिवासन के लिए रास्ता साफ किया गया? इसे देश की राजनीति चलानेवाले लोगों की लापरवाही समझी जाये, या फिर जानबूझ कर की गयी अनदेखी, यह सबसे अहम सवाल है।      
16 मई से लेकर 25 मई, 2013 तक की घटनाओं ने भारतीय क्रिकेट को कलंकित किया है। वर्ष 2000 के बाद पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय भारतीय क्रिकेटर का नाम न सिर्फ फिक्सिंग में आता है, बल्कि उसे गिरफ्तार भी किया जाता है।। राजस्थान रॉयल्स के डगआउट में बैठनेवाला एक क्रिकेटर अमित सिंह बुकी बन जाता है और अंतरराष्ट्रीय पैनल का एक अंपायर असद रऊफ संदेह के दायरे में होने की वजह से चैंपियंस ट्रॉफी से हटाये जाते हैं। जैसे ये काफी नहीं, जांच का दायरा आगे बढ़ते हुए, बोर्ड के मुखिया के दामाद तक पहुंच जाता है। वो दामाद मामूली व्यक्ति नहीं, बल्कि आइपीएल-6 के फाइनल मैच से पहले तक आइपीएल की नंबर एक टीम के सर्वेसर्वा होते हैं। क्रिकेट का अपना एक इतिहास है, एक विरासत है और अपनी एक भाषा है।
अगर कोई किसी भी विधा में पहले कोई गलती करता, तो लोग कहते- दिस इज नॉट क्रिकेट (यह क्रिकेट नहीं है)। 1983 से लेकर 2013 तक क्रिकेट ने लार्डस की बालकोनी से मुंबई के क्रिकेट सेंटर तक का फासला किया। क्रिकेट का आर्थिक सुपरपावर होने की वजह से भारत की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। क्या जब विश्व क्रिकेट की चाबी हमारे हाथों में है, तो लोग कहेंगे- डोंट बी लाइक क्रिकेट एंड क्रिकेटर्स (क्रिकेट और क्रिकेटर्स की तरह मत बनो)। यह बात खेल के लिए ही नहीं बल्कि इस खेल में सुपर पॉवर बन कर उभरे भारत के लिए भी शर्म की बात है।


आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग : कहीं 2000 में हुई जांच जैसा ना हो हाल

स्पॉट फिक्सिंग का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर निकाल आया है। इस जिन्न ने भारत ही नहीं विश्व क्रिकेट जगत में हड़कंप मचा दिया है। लेकिन क्या इसकी स्थिति वर्ष 2000 में हुई फिक्सिंग की जांच की तरह होगी, इस पर अभी से सवाल उठने शुरू हो गए है। हालांकि इस बार दिल्ली पुलिस ने स्पॉट फिक्सिंग में पकड़े गए राजस्थान रॉयल के तीन क्रिकेटरों पर अपराधिक मामला मकोका के तहत दर्ज किया है। ऐसे में यह पहला केस होगा, जिसमें कोई भारतीय क्रिकेटर स्पॉट फिक्सिंग मामले में जेल जाएगा।
स्पॉट फिक्सिंग को लेकर हल्ला होना भी शुरू हो गया है। इस मामले में अगर सबसे अच्छी बात अगर कोई है तो वह दिल्ली पुलिस कमिश्नर नीरज कुमार का होना। क्योंकि नीरज कुमार उस समय सीबीआई में थे, जब वर्ष 2000 में यह भूत पहली बार कब्र से बाहर निकला था। उसी अनुभव के आधार पर नीरज कुमार ने इस मामले को पकड़ा है। उनसे उम्मीद भी की जा रही है कि वह इस मामले को अच्छी तरह से निपटा लेंगे। पर यह भी देखना होगा कि भारतीय क्रिकेट कंटोल बोर्ड इसके प्रति कितनी गंभीर है। जहां तक बीसीसीआई की बात है तो वह केवल खिलाडियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की बात कहती है। बीसीसीआई हमेशा ही ऐसे मामलों से अपने को बचाती आई है। इसका एक उदाहरण तो पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद अजहरूद्दीन है।
अज़हर पर भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने आजीवन प्रतिबंध लगाया लेकिन जब अजहर आजीवन प्रतिबंध के मामले को लेकर आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालयगए तो वहां से उनको बरी कर दिया गया। अजहर के छूट जाने पर बीसीसीआई ने चुप रहते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील करना तक उचित नहीं समझा। जबकि बोर्ड के तत्कालीन उपाध्यक्ष खुद पूर्व कानून मंत्री अरूण जेटली थे। ऐसे में अगर बोर्ड किसी खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगा भी देता है तो वह कोर्ट में जाकर छूट जाता है। बीसीसीआई इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। वहीं खेल मंत्रालय भी इस पर चुप्पी सादे रहता है। वह यह कह देता है कि बीसीसीआई उनके तहत नहीं आता लेकिन जब मैच फिक्सिंग या स्पॉट फिक्सिंग पकडी ज़ाती है तो खेल मंत्रालय या बीसीसीआई नहीं,बल्कि देश बदनाम होता है। इसके बावजूद खेल मंत्रालय बीसीसीआई पर सख्ती करना भूल जाता है और मामला धीरे-धीरे समाप्त होता चला जाता है।
2000 में मैच फिक्सिंग का मामला आने के बाद खेल मंत्रालय या बीसीसीआई ने कभी खिलाड़ियों को लेकर उन्हें नैतिक शिक्षा देने के लिए कोई पहल नहीं की। जबकि हैंसी क्रोनिए के वर्ष 2000 में मैच फिक्सिंग में फंसने के बाद से दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट बोर्ड अपने सीनियर ही नहीं जूनियर खिलाड़ियों को नैतिक शिक्षा देने के लिए पाठशाला का आयोजन करता आ रहा है। बताया जाता है कि इस कार्यशाला में खिलाड़ियों को हैंसी क्रोनिए की तरह क्रिकेटर बनने की बात तो की जाती है लेकिन मैदान के बाहर हैंसी की तरह से न व्यवहार करने की बात पर जोर दिया जाता है। वहीं खिलाड़ियों को कैसे सट्टेबाज उनको लालच देते हुए फंसा सकते है, इससे कैसे बचे आदि पर चर्चा की जाती है। जबकि भारतीय बोर्ड ने आईसीसी के साथ कुछ राज्यों में इस तरह की पाठशाला लगाई भी, जो एक-दो वर्ष चलने के बाद बंद हो गई। ऐसे में यह मामला तो कभी न कभी उठाना ही था, जो यह भूत 14 वर्षो के बाद फिर से आ गया।
हालांकि इससे पहले कपिल देव वाली आईसीएल लीग में एक स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से कई खिलाड़ियों को पकड़ा गया था  लेकिन वह भी अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। हां, इंग्लैंड में मैच फिक्सिंग के मामले में पाकिस्तानी के तीन क्रिकेटरों को सजा जरुर हो चुकी है। अब तो बस उम्मीद है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड और खेल मंत्रालय अपने नियमों परिवर्तन की बात दोहराने की जगह उन्हें कड़ाई से पालन कराने का ही मन बनाये।

शनिवार, 25 मई 2013

वर्ष 2013 में भारतीय खेल के तीन काले अध्याय


भारतीय खेलों के लिए वर्ष 2013 का शुरुआती पांच महीने ग्रहण की तरह रहे। इस दौरान कभी खेल, तो कभी उसके खिलाड़ी तो कभी खेल विभागों के अधिकारियों पर समस्याएं ग्रहण बन कर घेरे रही। खेल और खिलाड़ियों पर लगे दाग की शुरुआत मुक्केबाज विजेंन्दर सिंह से हुई जो वर्तमान समय में दौलत, शोहरत और पैसे का खेल ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ तक पहुँची। आईपीएल में खिलाड़ी, टीम और उनके मालिकों तक के नाम फिक्सिंग मामले में संलिप्त होने के आसार नज़र आ रहे हैं।
भारत में खलों की लोकप्रियता जिस तरह तेजी से बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे खेल और खिलाड़ी अपने स्वार्थ व हित मात्र को पूरा करने के लिए अपने अपने खेल कौशल को बेचने में लगे हैं। वैसे तो खिलाड़ियों के डोपिंग और फिक्सिंग के मामले हमेशा से सामने आते रहें हैं लेकिन इस साल तो इन घटनाओं ने एक के बाद एक सभी मर्यादाएं तोड़ दीं। साल के पांच माह भी ढ़ंग से नहीं बीते हैं कि तीन बड़े मामले मुह बाये सामने खड़े हैं, जिसने सारी दुनिया के आगे देश का सर शर्म से झुका दिया है।

मार्च महिना की सात तारीख को देर रात भारतीय एथलैटिक खेल मुक्केबाजी को तब बहुत बड़ा झटका लगा जब ओलंपिक के पदक विजेता भारतीय मुक्केबाज विजेंदर सिंह और राम सिंह जैसे खिलाड़ियों के नाम हेरोइन (ड्रग्स) की सप्लाई में सामने आया। ओलंपिक पदक विजेता विजेंद्र सिंह जैसी दुनियाभर में मशहूर हस्ती का नाम इस प्रकार की ओछी हरकत में लिप्त पाये जाने से पूरे भारतीय खेल को शर्म का सामना करना पड़ा था। मामला तब और गरमा गया जब पुलिस ने ड्रग तस्करों की गिरफ्तारी के बाद उनके द्वारा बताए गए जीरखपुर के एक घर में छापा मारा तो 130 करोड़ की 26 किलो हेरोइन बरामद हुई। जिस घर से यह हेरोइन बरामद हुई, उस घर के बाहर विजेंदर की पत्नी की कार खड़ी थी। इतना ही नहीं जब पुलिस ने ड्रग तस्कर एनआरआई (प्रवासी भारतीय) अनूप सिंह काहलों को दबोचा तो उसने विजेंद्र का नाम लिया। इस पर पुलिस ने नाडा से जांच करवाई और रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद भी पंजाब पुलिस ने विजेंद्र को ही दोषी माना। तकरीबन दो महीने तक चले इस प्रक्रिया के बाद विजेंद्र सिंह और राम सिंह को को बरी किया गया।

मुक्केबाजों का ड्रग मामला अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने भारतीय ओलंपिक संघ को सस्पेंड कर दिया। समिति का कहना था कि ये फैसला अभय चौटाला के चुनाव को लेकर उठाया गया है। उनका कहना था कि चुनाव उसके नियमों के मुताबिक नहीं हुआ है। साथ ही कबड्डी को ओलंपिक में खेलने भी नहीं दिया जायेगा। इस मामले में आईओसी का  कहना था कि वह लगातार आईओए से कह रहा था कि वह अपने संविधान और ओलंपिक चार्टर को माने तथा चुनाव के लिए सरकार की खेल संहिता पर नहीं चले। इसके बाद भी जब आईओए ने अपने कार्यप्रणाली में परिवर्तन नहीं किया तो आईओसी ने यह कदम उठाया।
विदित हो कि ओलंपिक में कबड्डी के खेल की तहत ही भारतीय पहलवान सुशील कुमार ने देश को पदक दिलाया था। जब बात नहीं बन पाई तो आईओए ने समस्या के समाधान के लिए आईओसी के साथ बातचीत करने का फैसाला किया। बीते 15 मई को जब इस मामले को लेकर लुसाने मे बैठक हुई तो आईओसी ने आईओए को 15 जुलाई तक अपने सदस्यों की बैठक बुलाने को कहा है। उसने आईओए को एक सितंबर तक अपने नए पदाधिकारियों का चुनाव कराने की समय सीमा भी दी। आईओसी ने इस मामले पर आईओए को साफ तौर पर कहा है कि वह अपने सदस्यों की बैठक 15 जुलाई को करें ताकि उसके संविधान की समीक्षा हो सके और नए संविधान में सुशासन और नैतिकता के सभी मापदंडों को लागू किया जा सके। संशोधनों के लिए प्रस्ताव निलंबित आईओए की सदस्यता और आईओसी से आना चाहिए। 

कुछ ऐसी ही एक और विवादित घटना इंडियन प्रीमियर लीग में देखने को मिली है जहां खिलाड़ियों द्वारा स्पॉट फिक्सिंग का मामला प्रकाश में आया है। वर्ष 2007 में शुरु हुआ पैसों का एक ऐसा खेल जहां देश के जाने-माने व्यापारी से लेकर बॉलीवुड की हंस्तीयों ने अपने मनोरंजन के लिए फटाफट क्रिकेट के इस पहलु में एक फ्रेंचाइंडी टीम खरीदी। इस खेल में छक्कों-चौकों और विकेटों के साथ ही पैसा-शराब और शबाब का एक बेहतरीन कॉकटेल देखने को मिलता है। जब इस खेल की शुरुआत हुई तब इसकी लोकप्रियता मनोरंजन के तौर पर काफी बढ़ी लेकिन दो वर्षों के खेल के बाद क्रिकेट के इस संस्करण को भी ग्रहण लगने लगा।
कहते हैं न जब दौलत और शौहरत का मेल होता है तो गरिमा की प्राथमिकता पीछे छुट जाती है और स्वंय का हित दिखने लगता है। आईपीएल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ जब इसके सीजन-6 में राजस्थान रॉयल के तीन खिलाड़ी श्रीसंत, चंदीला और अंकित चाह्वान को स्पॉट फिक्सिंग मामले में गिरफ्तार किया गया। वैसे तो 2005 में भी फिक्सिंग का मामला सामने आया था लेकिन इस साल स्पॉट फिक्सिंग के मामले ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये। इन तीन खिलाड़ियों के गिरफ्तारी के बाद तो मैच फिक्सिंग में एक के बाद एक बड़े नाम सामने आने लगे। फिल्म स्टार बिंदु दारा सिंह के अलावा दो बार की चैंपियन चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक गुरूनाथ मईयप्पन को पुलिस ने सट्टेबाजी के मामले में गिरफ्तार किया। फिक्सिंग और सट्टेबाजी की आंच तो अब भारतीय क्रिकेट नियंत्रक बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन तक भी पहुँच गया है। अब आलम यह है कि पूर्व खिलाड़ियों सहित राजनेता सभी श्रीनिवासन को हटाये जाने की मांग करने लगे हैं। इन सभी घटनाओं ने देश के खेल और उसकी गरिमा दोनों को तार-तार करने का काम किया है, ऐसे में इस वर्ष के शुरुआती पांच महीने में इन घटनाओं को भारतीय खेल का काला अध्याय कहना गलत नहीं होगा । 

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