गुरुवार, 8 अगस्त 2013

दो टूक...

"सीमा पर तनाव हैँ, वीरों की मुँछ पर ताव हैँ।
पर पीएम के चेहरे पर, हाव हैँ ना भाव हैँ।
इन नेताओं को तो बस, कुर्सी से ही लगाव हैँ।
सब जानते ना-पाक ने, दिए देश को कई घाव हैं।
लेकिन स्वार्थ की बलिवेदी पर, जलते देश से नहीं चाव है।
उस पर भी कुछ लोग देश में, गुणगान पाक की करते हैं।
खाते हैं भारत मां की और नमन उजड़े चमन को करते हैं।
अब तो बस यह साफ हो गया, जो अपना नहीं पराया है।

या तो साथ हमारा दो, या तुमकों भी मार भगाना है...।"

रविवार, 21 जुलाई 2013

इस आरजू के आगे, कोई रास्ता नहीं

इस आरजू के आगे, कोई रास्ता नहीं है:
तुम्हे किस कदर है चाहा, तुम्हें भी पता नहीं है।
कोई पल बिना तुम्हारे, भला कैसे बीत जाये:
जो पास तुम नहीं हो, मेरे पास कुछ नहीं है।
मेरी हर दुआ के दम में, बस एक आरजू तुम्हारी:
इस आरजू के आगे, कोई रास्ता नहीं है।

हर पल तुम्हारी बातें, तुमसे ही जुस्तजू है:
बस तेरे ही खयालों में, मेरी तो जिन्दगी है।
कैसे भला छुपाये, दुनिया की हर अहद से:
कि जो जुबां रोक भी लूं, तो आखें बयान हैं।
अब तो ख्वाहिशें भी तुमसे, तुम्ही बंदगी हमारी:
कि इस आरजू के आगे, कोई रास्ता नहीं है।।

मंगलवार, 28 मई 2013

पुराना नाता है क्रिकेट और फिक्सिंग का

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार की रेलम-पेल के बीच खेलों में उठे फिक्सिंग विवाद ने विश्व की नज़रों में भारत को काफी शर्मसार किया है। रेलगेट और कोलगेट के चलते हाल के दिनों में भारतीय राजनीति में भूचाल थमा नहीं था कि क्रिकेट के दंगल आईपीएल में भ्रष्टाचार उजागर हो गया। आईपीएल की टीम राजस्थान रॉयल्स के क्रिकेटर श्रीसंत, अंकित चव्हाण और अजीत चंदीला को आईपीएल मैचों के दौरान स्पॉट फिक्सिंग के आरोपों में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मामले की तहकीकात चल रही है। जिस तरह भारतीय राजनीति जीप घोटाले से लेकर 2जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला और रेल घोटाला से यदाकदा कलंकित होती रही है। उसी तरह क्रिकेट के दामन पर भी लगातार दाग लगते रहे हैं।
आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग में तो पैसे की बरसात पहले से ही हो रही है क्योंकि इसके हर सीजन की कमाई अरबों में होती है। जिससे बीसीसीआई, टीमों के मालिक और क्रिकेटर हर साल माला माल हो रहे हैं। नामचीन क्रिकेटरों से लेकर गुमनामी में खोए क्रिकेटरों को भी कमाई करने का भरपूर मौका मिलता है लेकिन किसी क्रिकेटर की बोली करोड़ों में लगती है तो किसी की कुछ लाख तक ही। ऐसे में कम धन प्राप्त करने वाले क्रिकेटरों की चाहत अपने साथी क्रिकेटरों की तरह ज्यादा धन कमाने की इच्छा होती है। उनकी इच्छा को बल, तब और मिल जाता है जब कोई सटोरिये उनसे स्पॉट फिक्सिंग कर लाखों करोड़ों कमाने का आसान जरिया बता देता है। इसी गिरफ्त में फंसकर ये क्रिकेटर वो कर बैठते हैं जिससे क्रिकेट दागदार हो जाता है।
क्रिकेट में फिक्सिंग कोई नया नहीं है। इसका जाल विश्व स्तर पर फैला हुआ है। पहली बार 1994 में पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कप्तान सलीम मलिक पर मैच फिक्स करने और ऑस्ट्रेलिया के पाकिस्तान दौरे पर शेन वार्न और मार्क वा को लचर प्रदर्शन करने के लिए पैसे की पेशकश का आरोप लगा। ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी शेन वॉर्न और मार्क वॉ पर 1994 में ही श्रीलंका दौरे के दौरान सटोरियों को पिच और मौसम के बारे में जानकारी देने का आरोप लगा उन्हें जुर्माना भी भरना पड़ा।
उसके बाद फिक्सिंग का सिलसिला चल पड़ा। 1996 में भारतीय क्रिकेट टीम के मैनेजर सुनील देव ने कुछ भारतीय क्रिकेटरों पर मैच फिक्सिंग के लिए पैसे मांगने का आरोप लगाया। 1997 में मनोज प्रभाकर ने साथी क्रिकेटरों पर 1994 के श्रीलंका दौरे के दौरान फिक्सिंग कराने के लिए 25 लाख रुपए दिलाने का आरोप लगाया।
1998 में पाकिस्तानी गेंदबाज अताउर रहमान और वसीम अकरम पर न्यूजीलैंड के खिलाफ खराब गेंदबाजी करने के लिए तीन लाख डॉलर की पेशकश करने का आरोप लगा। 1998 में पाक क्रिकेटर राशिद लतीफ ने वसीम अकरम, सलीम मलिक, इंजमाम उल हक और एजाज अहमद पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगाया। 1998 में शेन वार्न और मार्क वा ने माना कि उन्होंने वर्ष 1994 में श्रीलंका में खेले गए सिंगर कप के दौरान मौसम और पिच की जानकारी सट्टेबाज को बेची थी।
2000 में दिल्ली पुलिस ने दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोन्ये पर भारत के खिलाफ वनडे मैच में फिक्सिंग कराने का आरोप लगाया। हर्शेल गिब्स, पीटर स्ट्राइडम और निकी बोए पर भी उंगलियां उठी थीं। क्रोन्ये ने स्वीकार किया था कि उन्होंने भारत में खेली गई एक दिवसीय सीरीज के दौरान अहम सूचनाएं 10 से 15 हजार डॉलर में बेचीं। अप्रैल 2000 में अफ्रीकी टीम के भारतीय टीम से 1994 में मुंबई में खेले गए एक मुकाबले में दो लाख पचास हजार डॉलर लेकर मैच हारने का खुलासा हुआ।
2000 में ही मनोज प्रभाकर ने कपिल देव पर आरोप लगाया कि उन्होंने ही 1994 में श्रीलंका में खेले गए मुकाबले में पाकिस्तान के खिलाफ खराब प्रदर्शन करने को कहा था। इसी साल पाकिस्तान की एक न्यायिक जांच समिति ने पूर्व कप्तान मलिक मुहम्मद कयूम और गेंदबाज अताउर रहमान पर फिक्सिंग करने की पुष्टि की। दोनों पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया था। फैसले में कहा गया कि अकरम और मुश्ताक अहमद भविष्य में कभी भी टीम के कप्तान नहीं बनाए जाएंगे। जून 2000 में अफ्रीकी खिलाड़ी हर्शेल गिब्स ने स्वीकार किया था कि उनके एक पूर्व कप्तान ने उन्हें भारत में खेले गए एक मुकाबले में 20 से कम रन बनाने को कहा था। इसके बदले में उन्हें 15 हजार डॉलर दिए गए।
2000 में ही दक्षिण अफ्रीका के क्रिकेट प्रमुख अली बशिर ने खुलासा किया था कि पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व सीईओ माजिद खान ने उन्हें बताया है कि विश्व कप-1999 के दो मैच पहले से ही फिक्स थे। ये मैच पाकिस्तान ने भारत और श्रीलंका के खिलाफ खेले थे। जून 2000 में क्रोन्ये ने कहा कि उन्होंने एक मैच में फिक्सिंग के लिए एक लाख डॉलर लिए थे। मगर मैच फिक्स नहीं किया। जुलाई 2000 में आयकर विभाग ने कपिल देव, अजहरुद्दीन, अजय जडेजा, नयन मोंगिया और निखिल चोपड़ा के माकानों पर छापे मारे। अक्टूबर 2000 में क्रोन्ये पर आजीवन प्रतिबंध लगाया गया। नवंबर 2000 में अजहरुद्दीन को फिक्सिंग का दोषी पाया गया जबकि अजय जडेजा, मनोज प्रभाकर, अजय शर्मा और भारतीय टीम के पूर्व फीजियो अली ईरानी के संबंध सट्टेबाजों से होने की पुष्टि की गई। दिसंबर 2000 में अजहरुद्दीन और अजय शर्मा पर आजीवन प्रतिबंध लगाया गया।
अगस्त 2004 में केन्या के पूर्व कप्तान मॉरिश ओडेंबे पर पांच साल का प्रतिबंध लगाया गया। उन्हें कई मैचों में पैसे लेकर फिक्सिंग करने का दोषी पाया गया था। नवंबर, 2004 में न्यूजीलैंड के पूर्व कप्तान स्टीफेन फ्लेमिंग ने दावा किया कि उन्हें एक भारतीय खेल आयोजक ने 1999 में खेले गए विश्व कप में खराब प्रदर्शन करने के लिए 3 लाख 70 हजार डॉलर की रकम पेश की थी।
2008 में मैरियन सैमुअल्स को दो साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। उन पर 2007 में भारत दौरे के दौरान एक भारतीय सट्टेबाज द्वारा फिक्सिंग के लिए पैसे लेने का आरोप सिद्ध किया गया था। 2010 में दानिश कनेरिया और मार्विन वेस्टफील्ड को काउंटी क्रिकेट में फिक्सिंग की जांच के मामले में गिरफ्तार किया गया। हालांकि बाद में उन्हें छोड़ दिया गया। अगस्त 2010 में लॉर्ड्स टेस्ट में स्पॉट फिक्सिंग में पाकिस्तानी टीम के पूर्व कप्तान सलमान बट्ट, मोहम्मद आमिर और मोहम्मद आसिफ फंसे। फरवरी 2011 में आईसीसी ने लॉर्ड्स टेस्ट में स्पॉट फिक्सिंग करने के दोषी पाकिस्तानी टीम के पूर्व कप्तान सलमान बट्ट पर 10 साल, मोहम्मद आमिर पर पांच साल और मोहम्मद आसिफ पर 7 साल के लिए प्रतिबंध लगाया।

भारत के एक निजी समाचार चैनल ने अपने एक स्टिंग ऑपरेशन में आरोप लगाया कि छह एंपायर 2012 टी-20 वर्ल्ड कप के मैच फिक्स करने को तैयार थे। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) ने श्रीलंका में हुए टी-20 वर्ल्ड कप के इन आरोपों की जांच की है। इससे जाहिर होता है हमाम में सभी नंगे हैं। जब अतंरराष्ट्रीय मैच में फिक्सिंग होता रहा है तो आईपीएल की शुरुआत पैसा कमाने के लिए ही हुई है। फिर भी खेल को खेल बनाए रखने के लिए पूरी कोशिश होनी चाहिए। अगर खेल की आत्मा मरती है तो प्रशंसकों में भारी निराशा होगी। उम्मीद है फिक्सिंग के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी और क्रिकेट एक बार फिर जेंटल मेन्स गेम बन कर उभरेगा।

आईपीएल : किरदार बदले पर हालात नहीं

आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग, जिसके छह साल के करतब ने दो शख्सीयतों को पहचान दिलायी और साथ ही उनकी मिट्टी भी पलीद कर दी। इस दौरान कई परिवर्तन भी हुए लेकिन हालात अब भी वैसे के वैसे हैं। आईपीएल अपने विवादों को पिटारे के साथ एक बार फिर अपने इतिहास को दोहराने की हद पर आ गया है। अब देखना है कि क्या ललित मोदी का सा हाल एन. श्रीनिवासन का भी होगा या फिर वह खुद को बलि होने से बचा लेंगे।
याद होगा कि किस तरह कुछ विवादों के बीच अधिकारी तो बदले गये लेकिन हालात में परिवर्तन नहीं किया गया या नहीं हुआ। बात 25 अप्रैल 2008 की, जिस दिन मुंबई में दो मैच हो रहे थे। एक ओर डीवाइ पाटिल स्टेडियम में मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच आइपीएल-3 का फाइनल मैच खेला जा रहा था, तो दूसरी ओर मुंबई के क्रिकेट सेंटर में बोर्ड के अधिकारी ललित मोदी की पारी खत्म करने की तैयारी कर रहे थे। डीवाइ पाटिल स्टेडियम में आखिरी गेंद फेंके जाने के चंद घंटे बाद बीसीसीआई का एक
ई-मेल आया और ललित मोदी को आईपीएल कमिश्नर पद से निलंबित कर दिया गया। पांच साल बाद इतिहास खुद को दोहरा रहा है। कोलकाता के ईडन गार्डन में एक ओर मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच फाइनल मैच खेला गया (जिसमें मुंबई जीत गयी)
, तो दूसरी ओर एन. श्रीनिवासन को बीसीसीआई मुखिया पद से हटाने के लिए रोडमैप तैयार हो रहा है।
वर्ष 2008 में ललित मोदी पर चौतरफा दबाव बनाया जा रहा था कि वे नैतिक जिम्मेवारी लेकर पद से इस्तीफा दे दें, लेकिन मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। अब 2013 में एन. श्रीनिवासन पर भी ऐसा ही दबाव है, देखना ये है कि क्या वो खुद इस्तीफा देते हैं, या फिर ललित मोदी के रास्ते पर चलते हैं। पांच साल में किरदार ललित मोदी से बदल कर एन. श्रीनिवासन हो गये हैं लेकिन इस बीच बोर्ड की राजनीति में कुछ नहीं बदला है। अगर फ्लैश-बैक में जाएं, तो वही टीम ओनरशिप में गड़बड़ियों की बातें, सट्टेबाजी से लेकर मैच फिक्सिंग के आरोप और बीसीसीआई आकाओं की वही जिद कि वे किसी कीमत पर अपनी कुर्सी को नहीं छोड़ेंगे।      
आइपीएल की जो नींव रखी गयी थी, उसमें मूलभूत दिक्कतें थी। 2008 में सभी ऐसे मामलों को एक-एक कर दबा दिया गया। सवाल ये हैं कि क्या 2013 में ऐसे ही एन श्रीनिवासन को हटा दिये जाने के बाद बाकी सभी फाइलें बंद कर दी जाएंगी? क्या आइपीएल में सुधार की जरूरतों की अनदेखी की जायेगी? क्या जांच एजेंसियों और कानून में बदलाव की बात को एक बार फिर से भुला दिया जायेगा? अगर ऐसा होता है, तो ललित मोदी और एन श्रीनिवासन के बाद हम फिर से 3-4 साल बाद एक ऐसे ही किरदार का इंतजार करेंगे और भारतीय क्रिकेट एक बार फिर ऐसी घटनाओं से शर्मसार होगा।
बहरहाल, एन श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन पर पुलिस का शिकंजा जैसे-जैसे कसता गया, बोर्ड के अधिकारी हरकत में आ गये। दिल्ली में बोर्ड के दो बड़े अधिकारी राजीव शुक्ला और अरुण जेटली परदे पर तो मैच फिक्सिंग को लेकर नये कानून के सिलसिले में पहले कानून मंत्री कपिल सिब्बल और खेल मंत्री भंवर जीतेंद्र सिंह से मिले, लेकिन परदे के पीछे श्रीनिवासन की बढ़ती मुश्किलों पर चर्चा और बातचीत के दौर जारी रहे- कैसे श्रीनिवासन को इस्तीफा देने के लिए मनाएं, कैसे श्रीनिवासन पर दबाव बढाया जाये, क्या हो वैकल्पिक व्यवस्था। भाजपा नेता अरुण जेटली से लेकर पूर्व अध्यक्ष शशांक मनोहर के नाम पर चचार्एं जारी हैं।
बीसीसीआई संविधान के नियम 15(5) का भी हवाला दिया जा रहा है कि मौजूदा बोर्ड अध्यक्ष को अगर हटाया जाता है, तो उसी जोन का कोई अधिकारी बोर्ड अध्यक्ष बने। लेकिन इससे पहले बोर्ड में परंपरा रही है कि दूसरे जोन के व्यक्ति का भी नाम कोई और जोन प्रस्तावित कर सकता है। शशांक मनोहर, अरुण जेटली या फिर कोई और, बीसीसीआई का अगला मुखिया कौन बनेगा, ये तो आने वाले दिनों में तय हो जायेगा, लेकिन सबसे अहम सवाल है कि क्या पुलिस हिरासत, कोर्ट-रूम से लेकर बोर्ड-रूम तक का ड्रामा खत्म होगा? इसे जानने के लिए ललित मोदी और एन श्रीनिवासन के बीच समानता को समझना जरूरी है।
2008 में जब ललित मोदी का आइपीएल से पत्ता साफ हुआ, तो उन्हें हटाने के अभियान में अहम किरदारों में एक एन श्रीनिवासन रहे। ललित मोदी ने तमाम नियमों को धता बताते हुए जब आइपीएल मॉडल को साकार कर दिखाया, तो बोर्ड के बड़े अधिकारी चुप्पी साधे रहे। इंडियन प्रीमियर लीग जैसे-जैसे कामयाब होता चला गया, ललित मोदी का रुतबा बढ़ता चला गया। आखिरकार जब मोदी के खिलाफ मामला खुला, तो सभी लामबंद हो गये। सवाल ये है कि बोर्ड के बड़े नाम उस वक्त क्यों चुप रहे, जब मोदी गलतियों की बुनियाद पर आइपीएल की नींव रख रहे थे? चलो माना कि एक बार गलती हो गयी लेकिन श्रीनिवासन के मामले में भी ये गलतियां कैसे दोहरायी गयीं? वे चुप क्यों रहे, जब बोर्ड के इस नियम की धज्जीयां उड़ायी गयी कि बोर्ड का मौजूदा अधिकारी बोर्ड से संबंधित किसी प्रॉफिटेबल वेंचर में शामिल नहीं हो सकता, यानी आइपीएल टीम नहीं खरीद सकता है?
बोर्ड अधिकारी तब क्यों चुप रहे, जब कोर्ट में श्रीनिवासन के खिलाफ कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट यानी हितों में टकराव का मुद्दा आया और श्रीनिवासन ने टीम को अपने रिश्तेदार या करीबी के नाम कर दिया, आरोप के मुताबिक वो करीबी मयपन्न थे। वे चुप क्यों रहे, जब कथित तौर पर चेन्नई सुपरकिंग्स को फायदा पहुंचाने के लिए अंपायरों को बदले जाने और ऑक्शन में धांधली की खबरें आयीं? वे चुप क्यों रहे जब आइपीएल में एक टीम के मालिक बोर्ड के मुखिया थे, बोर्ड का ब्रैंड एंबेसडर के श्रीकांत टीम के चीफ सेलेक्टर थे और उनका बेटा अनिरुद्ध श्रीकांत उसी टीम से खेल रहा था? वे चुप क्यों रहे, जब तेलंगाना विवाद की वजह से हैदराबाद के मैच तो डेक्कन चार्जर्स से छीन लिये गये, लेकिन श्रीलंका के क्रिकेटरों के खेलने पर मनाही के बावजूद चेन्नई में चेन्नई सुपरकिंग्स के मैच कराये गये?
सवाल यहीं खत्म नहीं होते। वे चुप क्यों थे जब आइसीसी एंटी करप्शन यूनिट से लेकर फेडेरेशन ऑफ इंटरनेशनल क्रिकेटर्स एसोसिएशन ने आइपीएल समेत प्राइवेट लीग में मैच फिक्सिंग का अंदेशा जताया और इसे रोकने के लिए मजबूत प्रतिक्रिया अपनाये जाने का सुझाव दिया? वे चुप क्यों रहे जब टिम मे को चुना गया और फिर धमकी देकर दोबारा चुनाव करा कर श्रीनिवासन के लिए रास्ता साफ किया गया? इसे देश की राजनीति चलानेवाले लोगों की लापरवाही समझी जाये, या फिर जानबूझ कर की गयी अनदेखी, यह सबसे अहम सवाल है।      
16 मई से लेकर 25 मई, 2013 तक की घटनाओं ने भारतीय क्रिकेट को कलंकित किया है। वर्ष 2000 के बाद पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय भारतीय क्रिकेटर का नाम न सिर्फ फिक्सिंग में आता है, बल्कि उसे गिरफ्तार भी किया जाता है।। राजस्थान रॉयल्स के डगआउट में बैठनेवाला एक क्रिकेटर अमित सिंह बुकी बन जाता है और अंतरराष्ट्रीय पैनल का एक अंपायर असद रऊफ संदेह के दायरे में होने की वजह से चैंपियंस ट्रॉफी से हटाये जाते हैं। जैसे ये काफी नहीं, जांच का दायरा आगे बढ़ते हुए, बोर्ड के मुखिया के दामाद तक पहुंच जाता है। वो दामाद मामूली व्यक्ति नहीं, बल्कि आइपीएल-6 के फाइनल मैच से पहले तक आइपीएल की नंबर एक टीम के सर्वेसर्वा होते हैं। क्रिकेट का अपना एक इतिहास है, एक विरासत है और अपनी एक भाषा है।
अगर कोई किसी भी विधा में पहले कोई गलती करता, तो लोग कहते- दिस इज नॉट क्रिकेट (यह क्रिकेट नहीं है)। 1983 से लेकर 2013 तक क्रिकेट ने लार्डस की बालकोनी से मुंबई के क्रिकेट सेंटर तक का फासला किया। क्रिकेट का आर्थिक सुपरपावर होने की वजह से भारत की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। क्या जब विश्व क्रिकेट की चाबी हमारे हाथों में है, तो लोग कहेंगे- डोंट बी लाइक क्रिकेट एंड क्रिकेटर्स (क्रिकेट और क्रिकेटर्स की तरह मत बनो)। यह बात खेल के लिए ही नहीं बल्कि इस खेल में सुपर पॉवर बन कर उभरे भारत के लिए भी शर्म की बात है।


आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग : कहीं 2000 में हुई जांच जैसा ना हो हाल

स्पॉट फिक्सिंग का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर निकाल आया है। इस जिन्न ने भारत ही नहीं विश्व क्रिकेट जगत में हड़कंप मचा दिया है। लेकिन क्या इसकी स्थिति वर्ष 2000 में हुई फिक्सिंग की जांच की तरह होगी, इस पर अभी से सवाल उठने शुरू हो गए है। हालांकि इस बार दिल्ली पुलिस ने स्पॉट फिक्सिंग में पकड़े गए राजस्थान रॉयल के तीन क्रिकेटरों पर अपराधिक मामला मकोका के तहत दर्ज किया है। ऐसे में यह पहला केस होगा, जिसमें कोई भारतीय क्रिकेटर स्पॉट फिक्सिंग मामले में जेल जाएगा।
स्पॉट फिक्सिंग को लेकर हल्ला होना भी शुरू हो गया है। इस मामले में अगर सबसे अच्छी बात अगर कोई है तो वह दिल्ली पुलिस कमिश्नर नीरज कुमार का होना। क्योंकि नीरज कुमार उस समय सीबीआई में थे, जब वर्ष 2000 में यह भूत पहली बार कब्र से बाहर निकला था। उसी अनुभव के आधार पर नीरज कुमार ने इस मामले को पकड़ा है। उनसे उम्मीद भी की जा रही है कि वह इस मामले को अच्छी तरह से निपटा लेंगे। पर यह भी देखना होगा कि भारतीय क्रिकेट कंटोल बोर्ड इसके प्रति कितनी गंभीर है। जहां तक बीसीसीआई की बात है तो वह केवल खिलाडियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की बात कहती है। बीसीसीआई हमेशा ही ऐसे मामलों से अपने को बचाती आई है। इसका एक उदाहरण तो पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद अजहरूद्दीन है।
अज़हर पर भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने आजीवन प्रतिबंध लगाया लेकिन जब अजहर आजीवन प्रतिबंध के मामले को लेकर आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालयगए तो वहां से उनको बरी कर दिया गया। अजहर के छूट जाने पर बीसीसीआई ने चुप रहते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील करना तक उचित नहीं समझा। जबकि बोर्ड के तत्कालीन उपाध्यक्ष खुद पूर्व कानून मंत्री अरूण जेटली थे। ऐसे में अगर बोर्ड किसी खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगा भी देता है तो वह कोर्ट में जाकर छूट जाता है। बीसीसीआई इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। वहीं खेल मंत्रालय भी इस पर चुप्पी सादे रहता है। वह यह कह देता है कि बीसीसीआई उनके तहत नहीं आता लेकिन जब मैच फिक्सिंग या स्पॉट फिक्सिंग पकडी ज़ाती है तो खेल मंत्रालय या बीसीसीआई नहीं,बल्कि देश बदनाम होता है। इसके बावजूद खेल मंत्रालय बीसीसीआई पर सख्ती करना भूल जाता है और मामला धीरे-धीरे समाप्त होता चला जाता है।
2000 में मैच फिक्सिंग का मामला आने के बाद खेल मंत्रालय या बीसीसीआई ने कभी खिलाड़ियों को लेकर उन्हें नैतिक शिक्षा देने के लिए कोई पहल नहीं की। जबकि हैंसी क्रोनिए के वर्ष 2000 में मैच फिक्सिंग में फंसने के बाद से दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट बोर्ड अपने सीनियर ही नहीं जूनियर खिलाड़ियों को नैतिक शिक्षा देने के लिए पाठशाला का आयोजन करता आ रहा है। बताया जाता है कि इस कार्यशाला में खिलाड़ियों को हैंसी क्रोनिए की तरह क्रिकेटर बनने की बात तो की जाती है लेकिन मैदान के बाहर हैंसी की तरह से न व्यवहार करने की बात पर जोर दिया जाता है। वहीं खिलाड़ियों को कैसे सट्टेबाज उनको लालच देते हुए फंसा सकते है, इससे कैसे बचे आदि पर चर्चा की जाती है। जबकि भारतीय बोर्ड ने आईसीसी के साथ कुछ राज्यों में इस तरह की पाठशाला लगाई भी, जो एक-दो वर्ष चलने के बाद बंद हो गई। ऐसे में यह मामला तो कभी न कभी उठाना ही था, जो यह भूत 14 वर्षो के बाद फिर से आ गया।
हालांकि इससे पहले कपिल देव वाली आईसीएल लीग में एक स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से कई खिलाड़ियों को पकड़ा गया था  लेकिन वह भी अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। हां, इंग्लैंड में मैच फिक्सिंग के मामले में पाकिस्तानी के तीन क्रिकेटरों को सजा जरुर हो चुकी है। अब तो बस उम्मीद है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड और खेल मंत्रालय अपने नियमों परिवर्तन की बात दोहराने की जगह उन्हें कड़ाई से पालन कराने का ही मन बनाये।

शनिवार, 25 मई 2013

वर्ष 2013 में भारतीय खेल के तीन काले अध्याय


भारतीय खेलों के लिए वर्ष 2013 का शुरुआती पांच महीने ग्रहण की तरह रहे। इस दौरान कभी खेल, तो कभी उसके खिलाड़ी तो कभी खेल विभागों के अधिकारियों पर समस्याएं ग्रहण बन कर घेरे रही। खेल और खिलाड़ियों पर लगे दाग की शुरुआत मुक्केबाज विजेंन्दर सिंह से हुई जो वर्तमान समय में दौलत, शोहरत और पैसे का खेल ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ तक पहुँची। आईपीएल में खिलाड़ी, टीम और उनके मालिकों तक के नाम फिक्सिंग मामले में संलिप्त होने के आसार नज़र आ रहे हैं।
भारत में खलों की लोकप्रियता जिस तरह तेजी से बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे खेल और खिलाड़ी अपने स्वार्थ व हित मात्र को पूरा करने के लिए अपने अपने खेल कौशल को बेचने में लगे हैं। वैसे तो खिलाड़ियों के डोपिंग और फिक्सिंग के मामले हमेशा से सामने आते रहें हैं लेकिन इस साल तो इन घटनाओं ने एक के बाद एक सभी मर्यादाएं तोड़ दीं। साल के पांच माह भी ढ़ंग से नहीं बीते हैं कि तीन बड़े मामले मुह बाये सामने खड़े हैं, जिसने सारी दुनिया के आगे देश का सर शर्म से झुका दिया है।

मार्च महिना की सात तारीख को देर रात भारतीय एथलैटिक खेल मुक्केबाजी को तब बहुत बड़ा झटका लगा जब ओलंपिक के पदक विजेता भारतीय मुक्केबाज विजेंदर सिंह और राम सिंह जैसे खिलाड़ियों के नाम हेरोइन (ड्रग्स) की सप्लाई में सामने आया। ओलंपिक पदक विजेता विजेंद्र सिंह जैसी दुनियाभर में मशहूर हस्ती का नाम इस प्रकार की ओछी हरकत में लिप्त पाये जाने से पूरे भारतीय खेल को शर्म का सामना करना पड़ा था। मामला तब और गरमा गया जब पुलिस ने ड्रग तस्करों की गिरफ्तारी के बाद उनके द्वारा बताए गए जीरखपुर के एक घर में छापा मारा तो 130 करोड़ की 26 किलो हेरोइन बरामद हुई। जिस घर से यह हेरोइन बरामद हुई, उस घर के बाहर विजेंदर की पत्नी की कार खड़ी थी। इतना ही नहीं जब पुलिस ने ड्रग तस्कर एनआरआई (प्रवासी भारतीय) अनूप सिंह काहलों को दबोचा तो उसने विजेंद्र का नाम लिया। इस पर पुलिस ने नाडा से जांच करवाई और रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद भी पंजाब पुलिस ने विजेंद्र को ही दोषी माना। तकरीबन दो महीने तक चले इस प्रक्रिया के बाद विजेंद्र सिंह और राम सिंह को को बरी किया गया।

मुक्केबाजों का ड्रग मामला अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने भारतीय ओलंपिक संघ को सस्पेंड कर दिया। समिति का कहना था कि ये फैसला अभय चौटाला के चुनाव को लेकर उठाया गया है। उनका कहना था कि चुनाव उसके नियमों के मुताबिक नहीं हुआ है। साथ ही कबड्डी को ओलंपिक में खेलने भी नहीं दिया जायेगा। इस मामले में आईओसी का  कहना था कि वह लगातार आईओए से कह रहा था कि वह अपने संविधान और ओलंपिक चार्टर को माने तथा चुनाव के लिए सरकार की खेल संहिता पर नहीं चले। इसके बाद भी जब आईओए ने अपने कार्यप्रणाली में परिवर्तन नहीं किया तो आईओसी ने यह कदम उठाया।
विदित हो कि ओलंपिक में कबड्डी के खेल की तहत ही भारतीय पहलवान सुशील कुमार ने देश को पदक दिलाया था। जब बात नहीं बन पाई तो आईओए ने समस्या के समाधान के लिए आईओसी के साथ बातचीत करने का फैसाला किया। बीते 15 मई को जब इस मामले को लेकर लुसाने मे बैठक हुई तो आईओसी ने आईओए को 15 जुलाई तक अपने सदस्यों की बैठक बुलाने को कहा है। उसने आईओए को एक सितंबर तक अपने नए पदाधिकारियों का चुनाव कराने की समय सीमा भी दी। आईओसी ने इस मामले पर आईओए को साफ तौर पर कहा है कि वह अपने सदस्यों की बैठक 15 जुलाई को करें ताकि उसके संविधान की समीक्षा हो सके और नए संविधान में सुशासन और नैतिकता के सभी मापदंडों को लागू किया जा सके। संशोधनों के लिए प्रस्ताव निलंबित आईओए की सदस्यता और आईओसी से आना चाहिए। 

कुछ ऐसी ही एक और विवादित घटना इंडियन प्रीमियर लीग में देखने को मिली है जहां खिलाड़ियों द्वारा स्पॉट फिक्सिंग का मामला प्रकाश में आया है। वर्ष 2007 में शुरु हुआ पैसों का एक ऐसा खेल जहां देश के जाने-माने व्यापारी से लेकर बॉलीवुड की हंस्तीयों ने अपने मनोरंजन के लिए फटाफट क्रिकेट के इस पहलु में एक फ्रेंचाइंडी टीम खरीदी। इस खेल में छक्कों-चौकों और विकेटों के साथ ही पैसा-शराब और शबाब का एक बेहतरीन कॉकटेल देखने को मिलता है। जब इस खेल की शुरुआत हुई तब इसकी लोकप्रियता मनोरंजन के तौर पर काफी बढ़ी लेकिन दो वर्षों के खेल के बाद क्रिकेट के इस संस्करण को भी ग्रहण लगने लगा।
कहते हैं न जब दौलत और शौहरत का मेल होता है तो गरिमा की प्राथमिकता पीछे छुट जाती है और स्वंय का हित दिखने लगता है। आईपीएल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ जब इसके सीजन-6 में राजस्थान रॉयल के तीन खिलाड़ी श्रीसंत, चंदीला और अंकित चाह्वान को स्पॉट फिक्सिंग मामले में गिरफ्तार किया गया। वैसे तो 2005 में भी फिक्सिंग का मामला सामने आया था लेकिन इस साल स्पॉट फिक्सिंग के मामले ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये। इन तीन खिलाड़ियों के गिरफ्तारी के बाद तो मैच फिक्सिंग में एक के बाद एक बड़े नाम सामने आने लगे। फिल्म स्टार बिंदु दारा सिंह के अलावा दो बार की चैंपियन चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक गुरूनाथ मईयप्पन को पुलिस ने सट्टेबाजी के मामले में गिरफ्तार किया। फिक्सिंग और सट्टेबाजी की आंच तो अब भारतीय क्रिकेट नियंत्रक बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन तक भी पहुँच गया है। अब आलम यह है कि पूर्व खिलाड़ियों सहित राजनेता सभी श्रीनिवासन को हटाये जाने की मांग करने लगे हैं। इन सभी घटनाओं ने देश के खेल और उसकी गरिमा दोनों को तार-तार करने का काम किया है, ऐसे में इस वर्ष के शुरुआती पांच महीने में इन घटनाओं को भारतीय खेल का काला अध्याय कहना गलत नहीं होगा । 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

नायकों पर भारी प्राण की खलनायकी...


‘हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है...’ यह संवाद प्राण ने ही अपने एक फिल्म में कहा था, जो आज उनके अभिनय जीवन के सार पर भी सटिक बैठ रहा है। जीवंत अभिनय तथा बेहतरीन संवाद अदायगी के बलबूते दर्शकों के दिलों में खलनायक का भयावह रुप उकेरने वाले प्राण की अदाकारी को भी शब्दों में नहीं ढ़ाला जा सकता। ऐसे में उन्हें लेकर जितने भी शब्दजाल बिने जाये वो कमतर ही होंगे। तभी उनका डॉयलाग हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है का जिक्र है, जो दर्शाता है कि प्राण ने अपने संवादों को रुपले पर्दे पर ही नहीं बल्कि जीवन में भी उतारा।
प्राण को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की घोषणा शायद इस वजह से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह पहली बार परदे पर खलनायक की भूमिका अदा करने वाले एक अभिनेता को मिल रहा है। प्राण सिनेमा के परदे पर खलनायकी के पर्याय हैं। प्राण ने अपने करियर की शुरुआत पंजाबी फिल्म 'यमला जट' से 1940 में की थी। 1942 वाली हिंदी फिल्म 'खानदान' से उनकी इमेज रोमैंटिक हीरो की बनी। लाहौर से मुंबई आने के बाद 'जिद्दी' से उनके बॉलिवुड करियर की शुरुआत हुई। इसके बाद तो वह हिंदी फिल्मों के चहेते विलेन ही बन गए।
प्राण ने हिंदी सिनेमा की कई पीढ़ियों के साथ एक्टिंग की। दिलीप कुमार, देव आनंद और राजकपूर के साथ पचास के दशक में, साठ और सत्तर के दशक में शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार और धर्मेंद्र के साथ उनकी कई फिल्में यादगार रहीं। मनोज कुमार की 'उपकार' के मंगू चाचा से वह पॉजिटिव करेक्टर के रूप में भी आने लगे। वह जो रोल करते, उसकी आत्मा में उतर जाते। लोग उन्हें विलेन और साधु, दोनों रूपों में सराहने लगे। 'पूजा के फूल' और 'कश्मीर की कली' जैसी फिल्मों से प्राण ने अपना नाता कमेडी से भी जोड़ लिया। अस्सी के दशक में राजेश खन्ना और अमिताभ के साथ उनकी कई यादगार फिल्में आईं।
उनकी खलनायकी के विविध रूप आजाद, मधुमति, देवदास, दिल दिया दर्द लिया, मुनीम जी और जब प्यार किसी से होता है में देखे जा सकते हैं। उनकी हिट फिल्मों की फेहरिस्त भी बड़ी लंबी है। अपने समय की लगभग सभी प्रमुख अभिनेत्रियों के साथ उनकी फिल्में आईं। पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में शिक्षित प्राण किसी भी जबान और लहजे को अपना बना लेते थे। उनकी अदा और डायलॉग डिलीवरी रील रोल को रियल बना देती थी। उनका डायलॉग -'तुमने ठीक सुना है बरखुरदार, चोरों के ही उसूल होते हैं' खूब चर्चित हुआ।
सबसे बड़ी बात यह कि चार सौ से अधिक फिल्में करने वाले प्राण ने खुद को कभी दोहराया नहीं। पत्थर के सनम हो या जिस देश में गंगा बहती है, मजबूर हो या हाफ टिकट या फिर धर्मा, प्राण ने हर फिल्म में अपनी मौजूदगी का पूरा अहसास कराया।
जीवन परिचय :
हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने नायक, खलनायक और चरित्र अभिनेता के रूप में मशहूर प्राण का असली नाम प्राण कृष्ण सिकंद है। प्राण साहब का जन्म 12 फ़रवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में बसे एक रईस परिवार में हुआ। बचपन से ही पढ़ाई में होशियार प्राण बड़े होकर फोटोग्राफर बनना चाहते थे। 1940 में जब मोहम्मद वली ने पहली बार पान की दुकान पर प्राण को देखा तो उन्हें फ़िल्मों में उतारने की सोची और एक पंजाबी फ़िल्म यमला जटबनाई जो बेहद सफल रही। फिर क्या था इसके बाद प्राण ने कभी मुड़कर देखा ही नहीं। 1947 तक वह 20 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम कर चुके थे और एक हीरो की इमेज के साथ इंड्रस्ट्री में काम कर रहे थे। हालंकि लोग उन्हें विलेन के रुप में देखना ज़्यादा पसंद करते थे।
प्रारंभिक अभिनय :
यह शायद संयोग नहीं कि प्राण ने अपने अभिनय की शुरूआत महिला कलाकार के रूप में ही की थी। शिमला की रामलीलाओं में मदन पुरी राम की भूमिका निभाया करते थे, जबकि सीता की भूमिका लंबे समय तक प्राण निभाते रहे। प्राण की विलक्ष्ण अभिनय क्षमता ही थी कि एक सौम्य छवि को क्रूर खलनायक के रूप में उन्होंने दर्शकों को स्वीकार करवा दिया। प्राण की अभिनय यात्रा का आरंभ छोटी छोटी नकारात्मक भूमिकाओं से हुआ। 1940 में पंजाबी फिल्म यमला जटमें प्राण को एक अहम् नकारात्मक किरदार मिलाफिल्म सफल हुई और उसके साथ प्राण की गणना भी सफल अभिनेताओं में होने लगी। जल्दी ही वे लौहार फिल्म उद्योग में एक खलनायक की छवि बनाने में कामयाब हो गए, इनकी लोकप्रियता ने उसी समय निर्माताओं को हिम्मत दी और 1942 में लाहौर की पंचोली आर्ट प्रोडक्शन के खानदानमें इन्हें उस समय की महत्वपूर्ण अदाकारा नूरजहां के साथ नायक बनने का अवसर दिया गया। लेकिन खलनायक के अभिनय की विविधता के सामने, नायक के चरित्र की एकरसता प्राण को रास नहीं आयी। बटवारे से पहले प्राण तकरीबन २२ फिल्मो में खलनायक की भूमिका निभा कर लाहौर में स्थापित हो गये थे। आजादी के बाद प्राण ने लाहोर छोड़ दिया और मुंबई आ गए, हालांकि पाकिस्तान में नायक के रूप में उनकी शाही लुटेराजैसी फिल्में आजादी के बाद तक दिखायी जाती रही और भारत आने के बावजूद पाकिस्तान के लोकप्रिय अभिनेताओं में वे शुमार किये जाते रहे।
यादगार फ़िल्में :
प्राण 1942 में बनी ख़ानदानमें नायक बन कर आए और नायिका थीं नूरजहाँ। 1947 में भारत आज़ाद हुआ और विभाजित भी। प्राण लाहौर से मुंबई आ गए। यहाँ क़रीब एक साल के संघर्ष के बाद उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म जिद्दीमिली। अभिनय का सफर फिर चलने लगा। पत्थर के सनम, तुमसा नहीं देखा, बड़ी बहन, मुनीम जी, गंवार, गोपी, हमजोली, दस नंबरी, अमर अकबर एंथनी, दोस्ताना, कर्ज, अंधा क़ानून, पाप की दुनिया, मत्युदाता क़रीब चार सौ से अधिक फ़िल्मों में प्राण साहब ने अपने अभिनय के अलग-अलग रंग बिखेरे। इसके अतिरिक्त प्राण कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हैं और उनकी अपनी एक फुटबॉल टीम बॉम्बे डायनेमस फुटबॉल क्लब भी खोला।
स्टाईल आईकन :
प्राण स्टाइलिश ऐक्टर थे लेकिन फर्क यह था कि जहां अधिकांश अभिनेता अपने स्टाइल को अपना ब्रांड बनाकर जिंदगी भर दुहराते रहे। प्राण हरेक फिल्म में अपने एक नये स्टाइल के साथ आए। कभी-कभी स्टाइल के लिए उन्होंने सिगरेट, रूमाल, छड़ी जैसी चीजों का भी सहारा लिया। अधिकांश फिल्मों में स्टाइल उनकी आंखों, होठों और चेहरे के भाव से बदलते रहे। हां, प्राण शायद ऐसे पहले अभिनेता थे जिन्होंने आवाज और मोडूलेशन बदलकर पात्र को एक नई पहचान दी। बाद में जिसका इस्तेमाल अमिताभ बच्चन ने अग्निपथमें, शाहरूख खान ने वीरजारामें और बोमन ईरानी ने वेलडन अब्बामें किया। प्राण अपने अभिनय के बारे में कहते भी थे, मैं पात्र में नहीं उतरता पात्र को अपने अंदर उतार लेता हूं। आज के मेथड एक्टिंग में उनका यकीन नहीं था। यह प्राण की ही खासियत थी कि अपने मैनेरिज्म के साथ भी वे दर्शकों को एक ओर उपकारके मंगल चाचा दूसरी ओर विक्टोरिया नं.203के राणा के रुप में भी स्वाकार्य हो सकते थे।

फ़िल्म समीक्षकों की दृष्टि से :
प्रख्यात फ़िल्म समीक्षक अनिरूद्ध शर्मा कहते हैं, ‘प्राण की शुरुआती फ़िल्में देखें या बाद की फ़िल्में, उनकी अदाकारी में दोहराव कहीं नज़र नहीं आता। उनके मुंह से निकलने वाले संवाद दर्शक को गहरे तक प्रभावित करते हैं। भूमिका चाहे मामूली लुटेरे की हो या किसी बड़े गिरोह के मुखिया की हो या फिर कोई लाचार पिता हो, प्राण ने सभी के साथ न्याय किया है।
फ़िल्म आलोचक मनस्विनी देशपांडे कहती हैं कि वर्ष 1956 में फ़िल्म हलाकू में मुख्य भूमिका निभाने वाले प्राण जिस देश में गंगा बहती हैमें राका डाकू बने और केवल अपनी आंखों से क्रूरता ज़ाहिर की। पर फिर 1973 में जंजीरफ़िल्म में अमिताभ बच्चन के मित्र शेरखान के रूप में उन्होंने अपनी आंखों से ही दोस्ती का भरपूर संदेश दिया। वह कहती हैं कि उनकी संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली लोग अभी तक नहीं भूले हैं। कुछ फ़िल्में ऐसी भी हैं जिनमें नायक पर खलनायक प्राण भारी पड़ गए। चरित्र भूमिकाओं में भी उन्होंने अमिट छाप छोड़ी है।
फिल्मफेयर और पद्म भूषण से सम्मानित :
प्राण को तीन बार बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। 1997 में  उन्हें फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से नवाजा गया। आज भी लोग प्राण की अदाकारी को याद करते हैं। बॉबी, मधुमति, खानदान, औरत, जिस देश में गंगा बहती है, हॉफ टिकट, उपकार, पूरब और पश्चिम, डॉन और जंजीर कुछ उनकी मशहूर फिल्में हैं। वर्ष 2001 में हिंदी सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया।


मंगलवार, 19 मार्च 2013

मैं एक पंत चल जाता हूँ...


जीवन के भयकाल सफर पर,
मैं एक पंत चल जाता हूँ।
ना भाव-विचार ना दुविधा मन में,
रख लक्ष्य नज़र का दूर तलक,
प्राप्त मानवता को होता हूँ।

बस एक कलम साथी अपना,
हैं शब्द सारथी जीवन के।
रस वसुधा सारा ध्यान उढ़ेल,
बस एक छंद रच पाता हूँ।

सच दुनिया का है इतना जाना,
जितना सोचो सब खोना है।
अब हार मिले या जीत मिले,
सबके मद में रब होना है।।

मंगलवार, 5 मार्च 2013

सुलझा हुआ बजट है : नैना लाल किदवई, प्रेसिडेंट फिक्की


साक्षात्कारनई दिल्ली, 28 फरवरी (हि.स.)। बजट में उद्योग जगत को क्या मिला। क्या इस बजट से उद्योग जगत संतुष्ट है इन्हीं सब मुद्दों पर फिक्की प्रेसिडेंट नैना लाल किदवई से खास बातचीत की हिन्दुस्थान समाचार के संवाददाता आकाश राय ने....

- बजट पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है।

इस बजट से अर्थव्यवस्था विकास की ओर बढ़ेगी। इस बजट से ग्रोथ में तेजी आएगी ऐसा अनुमान है। कह सकते हैं यह सुलझा हुआ बजट है और इसमें जिम्मेदारी का पुट है। बजट में वित्तीय प्रबंधन, बुनियादी ढांचे का खास ख्याल रखा गया है। जैसा अनुमान था वैसा ही बजट है। इस बार के बजट में ऐसा कुछ नहीं है जिसे खास कहा जाए। राजकोषीय घाटे कम करने का प्रयास किया जाएगा।

-इस बजट में महिला उद्यमियों को कहां देख रहे हैं। महिलाओं के लिए विशेष घोषणा भी हुई है।

पिछली बार कहा गया था कि महिला मुद्दे ही गायब हैं। इस बार महिला द्वारा महिला के लिए फंड निर्भया फंड बनाने का ऐलान किया है। वह है एक हजार करोड़ रुपए का। और यह पूरी तरह महिलाओं द्वारा संचालित होगा। यह पहली बार किया जा रहा है जो काफी अच्छा कदम है। युवाओं के लिए एक हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था काफी अच्छा घोषणा की गई है। यह अच्छी योजना है।

-सरकार ने इनफ्रास्ट्रक्चर पर इस बजट में जोर दिया है क्या कहेंगे आप।

निश्चित तौर पर सरकार ने इनफ्रास्ट्रक्चर पर जोर दिया है। वह काफी अच्छा है। इन्फ्रास्ट्रक्चर बांड के जरिए 50 करोड़ रुपए जुटाने का प्रयास किए जाने की बात कही गई है वह अच्छा है। इससे रियल एस्टेट में तेजी आएगी ऐसी उम्मीद है। राजीव गांधी इक्विटी से भी छोटे निवेशकों को फायदा होगा।

-सरकार से उद्योग जगत को जीएसटी और डीटीसी पर उम्मीदें भी थी।

बिल्कुल, जीएसटी और डीटीसी को लेकर सरकार ने कहा है कि इस पर जल्द ही विधेयक संशोधन के बाद आएगा उसपर पारित किया जाएगा। यह अच्छा है। बजट गुड्स एवं सर्विसेज टैक्स की ओर पहला कदम है। यह अच्छी बात है। मुआवजे के लिए नौ हजार करोड़ रखे गए हैं।

- बजट को देखने से ऐसा लगता है कि स्वास्थ्य सेक्टर पर सरकार ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। आप क्या कहेंगे।

निश्चिततौर पर स्वास्थ्य सेक्टर ऐसा सेक्टर है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि बजट में सरकार ने कुछ सेक्टर जहां स्वास्थ्य से जुड़े हैं खासकर सामाजिक कल्याण के लिए किया गया काम इसी के अंतर्गत है। जिसपर जोर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में रिक्शेवाले, ऑटोरिक्शा का प्रस्ताव अच्छा है। इसमें खासकर स्वयं सहायता ग्रुप बीमा का प्रस्ताव अच्छा है।

-कुछ ऐसे मुद्दे जिस पर उद्योग जगत की अपेक्षा रही हो और वित्त मंत्री उसपर कोई ध्यान नहीं दिए हों।

 उद्योग के कई सेक्टर पर काफी कुछ सरचार्ज लगे हुए हैं। जो मंदी के समय से ही हैं। उसे हटाने के बारे में सोचना चाहिए। सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया यह निराशाजनक है। सरचार्ज हटाना चाहिए था। जिससे उद्योग जगत को राहत मिले। जिससे बेहतर आउटपुट दिखाई पड़ता। सरकार ने एक करोड़ से अधिक आमदनी वाले पर दस फीसदी सरचार्ज लगाने की बात कहीं गई है। वित्त मंत्री ने कहा कि इसे एक साल के बाद हटा लिया जाएगा। लेकिन अब ऐसा लगता नहीं है।

-सरकार ने बजट में उद्योग से ज्यादा कृषि सेक्टर पर ध्यान दिया है।

नहीं, ऐसा नहीं लगता। नाबार्ड के तहत कुछ विशेष घोषणा है। लेकिन कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। पोस्ट ऑफिस को कोर बैंकिंग बनाने की बात कही गई है। हैंडलूम और पर भी घोषणाए काफी अच्छी है। इस तरह की घोषणा से सभी तरह के विकास होगा।

 -सब्सिडी पर सरकार मौन हैं ऐसा लगता है आपको।

सब्सिडी जैसे तत्व पहले ही सरकार ने बजट से बाहर कर दिया है। सब्सिडी धीरे-धीरे कम करना चाहिए था। सब्सिडी कम नहीं किया है। सरकार की भी ऐसी रणनीति रही है कि धीरे-धीरे इसे कम करते हैं लेकिन सरकार ने इस पर अमल नहीं किया है।

-सरकार ने इस बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर पर जोर देने की बात नजर आ रही है।

सरकार की ओर से किया गया प्रयास अप्रर्याप्त है। पवार सेक्टर के लिए घोषणाएँ कुछ अच्छी रही हैं। अभी इंफ्रास्ट्रक्टर पर और काम करने की जरूरत है। सरकार को इससे उबारने का प्रयास करना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत होगा तभी उद्योग जगत भी आगे बढ़ेगा।

हिन्दुस्थान समाचार/28.02.2013/आकाश।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

माँ मेरी ...

माँ मेरी तू मुझपे बस इतनी मेहर कर दे,
दे दुआ मुझको सदा खुद में बसर कर दे।
रहूं जब भी तुझसे दूर मेरे दिन चैन से कटे,
रहे माथे पर हाथ तेरा, मन का साहस तू बने।
माँ मेरी मुझको तो बस तेरी दुआ चाहिए,
ताऊम्र तेरे आँचल की ठंडी हवा चाहिए।

खुशियाँ दुनिया भर की तेरे चरणों की धूल हैं,
माँ तेरे आगे अभी तो हम बच्चें सब फूल हैं।
जिन्दगी के हर कदम पर तेरा आसरा चाहिए,
माँ मेरी मुझको तो बस तेरी दुआ ही चाहिए,
ताऊम्र तेरे आँचल की ठंडी हवा ही चाहिए।

सुन कर बातों को मेरी, माँ कुछ सोचती हुई,
आँखों में आए अपने आँसुओं को रोकती हुई,
फिर, रो पड़ी माँ, माथे को मेरे चूमती हुई।
अब कितने दिन रहोगे, मेरे पास तुम यहाँ,
थकती नहीं है मुझ से वो ये पूछती हुई।

रहती है जागती वो मेरी नींद के लिये,
मैं ठीक तो हूँ, हर वक़्त यही सोचती हुई।
कहती है कैसे कटती है परदेश में तेरी,
आँखों से बहते अश्कों को पोछती हुई।
हो गई कमाई और कितना काम करेगा,
घर आ जा बेटा कहती है मुझे टोकती हुई।

उसके आंसुओं को जब भी पोछता हूँ मैं,
कितना दुख झेलती है मां ये सोचता हूँ मैं।
चाहता हूँ कह दूं कुछ दिन इंतजार कर ले,
फिर तेरे संग अपनी तो सुबहो-शाम कटेगी।
तेरी एक आवाज पर मैं तेरे पास रहूंगा,
तब तेरी हर जरुरतों के लिए तैयार रहूंगा।

सुन कर मेरी बातों को वो फिर से आंसु बहायेगी,
एक प्यार की पुच्ची से मेरे माथे को वो छू जायेगी।
मैं फिर से कह पड़ुंगा देख कर माँ के जज्बात को,
माँ मेरी मुझको तो बस तेरी दुआ ही चाहिए,
ताऊम्र तेरे आँचल की ठंडी हवा ही चाहिए।

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