मंगलवार, 26 जून 2012

रंग-ए-जिंदगानी


"हर कदम एक जलजला आया, फिर भी मंजिल तक चला आया।
था अंधेरा घना जहां जमाने में, मैं वहां पर दिया जला आया।

उड़ गयी धज्जीयां भी चुप्पी की, मैं अगर फाड़कर गला आया।
ज्वार रोका है कैसे पूछो मत, चांद जब सीने में उतर आया।

लग रही है जमीन जन्नत सी, अर्श का कौन सा तल आया।
वैसे सुबह है कहां मुमकिन, ख्वाब जिस रुप में ढ़ल आया।

कोई उत्सुक नहीं मुझे लेकर, जाने मैं किस लिए उतावला आया।
पायी फूल की चोट कांटो से बढ़कर, आंख में खून छलछला आया।

जी रहा हूँ मौत के जिस वायदे पर, रोज के रोज जो टला आया।
जाने किस दिन हो मिलन उससे, जो ख्वाबों में अक्सर चला आया।"

शनिवार, 16 जून 2012

पिता...


"होती है मां घर की आत्मा जरुर,
पर ओढ़ दृढ़ता का आवरण रक्षक बनता है पिता।

अश्रुओं का सागर बच्चों के लिए रखती है मां,
तो संयम का नया पाठ पढ़ाता है पिता।

बच्चों की एक आह पर दौड़ती है जहां मां,
वहीं फर्स्ट-एड का डिब्बा पकड़ता है पिता।

माना बच्चों की भूख पर रोटी खिलाती मां,
उसे लाने की खातिर तो परिश्रम करता है पिता।

नहीं कहता मां से बेहतर पिता होता हैं,
कि दोनों की छांव में बच्चा पल-बढ़ कर है जीता।

मां सह देकर कहती ना करना गलती तू,
पर ठेठ अंदाज में बच्चों को सुधारता है पिता।

थोड़ा गुस्सा थोड़ा प्यार अंदाज यही पिता का,
पर जाने क्यों फिर मन ही मन रोता है पिता।


ना रोकता ना टोकता, बच्चों की ख्वाहिश पे जीता,
बच्चे ना पकड़े गलत रस्ता, ये ध्यान रखता है पिता।

कभी उभरते जज्बात कभी डांट का भरम बनाये रखते हैं,
अपने ही अलग-अनूठे अंदाज में अनबूझ पहेली हैं पिता।

चाहे जैसा भी कह लो उनको, गुस्सैल-नरम या जज्बाती,
पर बच्चों की खातिर नाजुक दिल संग सख्त धड़ हैं पिता।"

शुक्रवार, 8 जून 2012

आहटें दर्द की....


बोझ मेरे मन पर बढ़ा-बढ़ा सा लगता है,
सूनी आँखों में आया सैलाब सा लगता है।

कोई रुठ गया या दिल टूटा सा लगता है,
उससे फिर भी अहसास जुड़ा सा लगता है।

भोर से लेकर शाम तलक वो ही अपना लगता है,
जाने फिर क्यों उससे ही मन उखड़ा मेरा रहता है।

आज भी उससे रिश्ता अपना पहले जैसा लगता है,
जाने फिर क्यों हरकतें वो अहसानों वाला रखता है।

डरता हूँ खो ना जाऊ, दुनिया की इस उलझन में,
पर इससे ज्यादा डर उसको खोने का लगता है।

साथ ही था मेरे जो अब खोया-खोया सा रहता है,
कि खुद से अब हर रोज यही गिला सा रहता है।

मिलूंगा उससे भी एक दिन की वो कब तक रुठेगा,
उस एक दिन की ख्वाहिश में जीना बेजार सा लगता है।

रंग-ए-जिन्दगानी...


कल वो सारे ख्वाब नजर आये बहुत,
देख कर जिनको हम पछताये बहुत।

जुस्तजू क्या थी कि बढ़ती ही गयी,
वैसे हमनें अपने पांव फैलाये बहुत।

सामने कुछ भी नजर आता न था,
यूँ तो निगाहों में साये रहे बहुत। 

देखने की चाह जब जाती रही,
आंख को मंजर नजर आये बहुत।"

आज के नेता...


जनसेवा का व्रत लिया, रहते जन से दूर।
सत्ता सुख की कामना, आदत से मजबूर।

सीडी, सत्ता, सुन्दरी, इनमें क्या है मेल।
मतदाता हैरान हैं, आखिर क्या है खेल।

राजनीति के हाट में, सच ईमान बिकाय।
रावण जीता राम से, राम करे हैं हाय...।"

रविवार, 3 जून 2012

नया दिन नई सोच...


"अब सोचते हैं नये दिन से नया सा हाल हो,
अपनी हरकतें भी लोगों को लिए मिसाल हो।

अपने शहर में कोई न रहे दूर किसी से,
रहे हर ओर शांति अब न कोई बवाल हो।

ये तेरा है ये मेरा है, ये बातें भूल जाये सब,
कि हर लब पर बस हमारेलहजे का कमाल हो।

चले ऐसी आंधी की मिटे सारे रंजिश-ए-शिकवे,
दुश्मनों में भी हो मोहब्बत, उनमें बोलचाल हो।

न झगड़े कोई किसी से, ना अब फसाद हो कोई,
मुस्कुराहटों संग गुजरे जिंदगी ऐसा कोई साल हो।

सब कुछ हमारे पास फिर क्यों है गरीबी का बसर,
इस अमीरे-शहर में अब कुछ ऐसे भी सवाल हो।

कभी तो बदले महोब्बत का भी निजाम देश में,
उब चुके हुश्न-ओ-इश्क से, अब देशप्रेम मुहाल हो।"

शुक्रवार, 1 जून 2012

आगे ही बढ़ता रहा...


"ये जिन्दगी चलती रही, वक्त भी गुजरता रहा,
मैं अपनी धुन में गिरता और संभलता रहा।

जो जागने के दौर में, मैं था बस सोता रहा,
जब नींद आंखों से गयी तो हार पर रोता रहा।

फिर संभल कर राह पर मैं तो बस चलता रहा,
सुध नहीं रखी कोई, ठोकर लगी कि पांव जलता रहा।

हर अंधेरी राह पर भटकन का डर लगता रहा,
पर दिलेरी आस की और रास्ता कटता रहा।

सवालों के उलझनों में भी कई बार उलझता रहा,
फिर जवाबों की फिराक में रात-दिन मचलता रहा। 

अभी दूर है मंजिल मेरी हरपल इसका अंदेशा रहा,
पर उसे पाने की ख्वाहिश दिल में बस पलता रहा।

पा ही जाउंगा मैं मंजिल, कल कोई कहता रहा,
पर जुनून-ए-जीत में, आगे को बढ़ता रहा...आगे ही बढ़ता रहा।"

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