सोमवार, 28 मई 2012

मेरी जिन्दगी...


"मेरी जिन्दगी तो बस मेरी मां के ख्वाबों का रुप है,
कभी उसके प्यार की छांव, कभी गुस्से का धूप है,
रोऊं मैं तो आंखे उसकी हैं नम होती,
हंसी मेरी उसके चेहरे पे मुस्कान लाती है,
इतना जुड़ा हूँ उससे कि कोई बात नहीं भाती,
अब तो हर खुशी-गम में उसकी याद सताती।"

शनिवार, 26 मई 2012

ये उड़ान पंखों की नहीं हौसलों की है...

जज्बा और जुनून हो तो इंसान लाख कमियों के बावजूद अपनी मंजिल को पा ही लेता है फिर चाहे शरीर साथ दे या ना दे। ऐसे में व्यक्ति अपने हौसलों को ही अपने पंख के तौर पर इस्तेमाल कर अपनी उड़ान को पूरा करने की क्षमता रखता है। चाहे कला के क्षेत्र की बात हो या फिर जीवन यापन के लिए नौकरी करने की। हौंसला हर घड़ी इंसान को अपनी पहुँच से ऊपर तक मेहनत करने को प्रोत्साहित करता है, जो वास्तविकता में कार्य परिणीत भी होती है। ऐसे में जब खेल की बात आती है तो लोग अक्सर सोचने लगते हैं कि शारीरिक अक्षमता के लोग कैसे खुद को पहचान दिया पायेंगे, लेकिन आज खेलों में भी अपने दृढ़ निश्चय के बल पर शारीरिक अक्षमता को मात देते हुए कईयों ने अपनी अलग पहचान बना ली है।

खेल चाहे जो भी हो पर एक बात तो साफ है कि पैसे और शोहरत की कमी इसमें नहीं है। तभी तो बहुतेरे लोग इसे अपना प्रोफेशन बनाने में लगे हैं। इसमें शारीरिक सक्षम लोगों को तो लम्बी फौज है, पर एक वर्ग ऐसा भी है जो खेल को केवल जुनून और जीवन की कठिनाईयों से न हारने की जिद के आधार पर इसे अपना रहा है। इस वर्ग का विशेषण यह है कि शरीर के साथ नहीं देने के बावजूद उनका जज्बा ही उन्हें लगातार आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। इन्हीं हौसलों के जरिए ही आज दुनिया भर में कई ऐसे खेल अस्तीत्व में आ गये हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मसलन जिसके पैर साथ ना देते हो वह व्यक्ति भला कभी बास्केट बाल खेल सकता है, या फिर जिसने दुनिया के विभिन्न रंगों को देखा न हो वह टेनिस के खेल में बेहतरीन शॉट या निशानेबाजी में लक्ष्य पर सटिक निशाना लगा सकता है। ऐसे और कई सवाल हैं जो दिमाग में उलझन पैदा करते हैं लेकिन अब यह सब सच हो गया है। तकनीक के कमाल और खिलाड़ियों के कभी हार न मानने के जज्बे ने सब कुछ कर दिखाया है।


खेल और उसके खिलाड़ी :-
पैरा बैडमिंटन- कहते हैं मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है..। ये पंक्तियां अबोहर के नजदीकी गांव खुइयां सरवर के बैंडमिंटन खिलाड़ी संजीव कुमार पर पूरी फिट बैठती हैं। संजीव ने विकलांगता को मात देते हुए अपनी काबिलियत से यह सिद्ध कर दिया है कि अगर इरादे मजबूत हों तो कुछ भी असंभव नहीं है।

संजीव कुमार ने दूसरी फ्रेंच ओपन इंटरनेशनल पैरा बैडमिंटन (विकलांग) 2012 मुकाबले में कांस्य पदक जीत कर विकलांगता को मात दी है। प्रतियोगिता फ्रांस के रोडीज में 6 से 9 अप्रैल को हुई थी, जिसमें 13 टीमों ने अपने जौहर दिखाए थे। गौरतलब हो कि इससे पहले भी संजीव बैडमिंटन में कई पुरस्कार जीत कर अपना नाम रोशन कर चुका है। प्रतियोगिता में यह खिलाड़ी ट्राईसाइकिल पर बैठकर ही खेलता है।

विकलांगों की कुश्ती डॉगलैग्स:- शरीरिक तौर पर विकलांग होना लोगों को खेलों से दूर नहीं कर सकता। फिर चाहे खेल कुश्ती ही क्यों न हो। जापान का डॉगलैग्स रेस्लिंगग्रुप ऐसी ही एक संस्था है जो अपाहिज लोगों को कुश्ती लड़ने का मौका देती है। फिर भी बहुत से लोग इस लड़ाई को नकली मानते हैं, जबकि अन्य खेलों की तुलना में डॉगलैग्स को ज्यादा मनोरंजक बनाया गया है।

डॉगलैग्स खेल के संस्थापकों में से एक यूकिनोरी किटाजिमा कहते हैं कि दर्शकों का मनोरंजन करने वाला कोई भी शख्स पहलवान बन सकता है। डॉगलैग्स के एक मशहूर पहलवान ईटीका वे उदाहरण देते हैं कि वे किस तरह चेहरे पर भाव भी प्रकट करते हैं। इन शारीरिक अक्षम खिलाड़ियों के नाम भी हार्ड रॉक, नो सिंपैथी और वेलफेयर पॉवर जैसे रोमांचक होते हैं, ताकि कहीं से भी उन्हें यह न लगे की उन्हें केवल सहानुभूति के तौर पर पसंद किया जाता है।

 व्हीलचेयर बास्केटबॉल- इस खेल की कल्पना द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अस्तीत्व में आयी थी। जब युद्ध के विकलांग दिग्गजों द्वारा रचित व्हीलचेयर बास्केटबॉल का खेल शुरु हुआ। इसमें शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन की गई व्हीलचेयर पर बास्केटबॉल खेला जाता है। दुनिया में व्हीलचेयर बास्केटबॉल का शासी निकाय अंतर्राष्ट्रीय व्हीलचेयर बास्केटबॉल फ़ेडरेशन (आईजब्ल्यूबीएफ) है। अभी तक दुनिया में कोई बड़ा नाम इस खेल के प्रति ज्यादा आकर्षित नहीं हुआ और ना ही इस खेल को कोई पब्लिसिटी मिली है। लेकिन इतना जरुर हुआ है कि इस खेल को पसंद करने वाले खिलाड़ी व्हीलचेयर पर बैठकर ही सही खेल का लुफ्त केवल देखकर नहीं खेल कर भी लेने में सक्षम हो गये हैं।

ब्लाइंड टेनिस- इंसान की कल्पनायें दुनिया की मौजूद वस्तुओं-सुविधाओं से परे चीजे करने को उत्साहित करती है। इसी का नतीजा है कि नेत्रहीन लोगों के लिए ब्लाइंड टेनिस जैसे खेल का आविष्कार हो सका। इस खेल की खोज का श्रेय जापान के मियोशी टाकी को जाता है, जो खुद नेत्रहीन हैं और बचपन से ही टेनिस के प्रति लगाव ने उन्हें आविष्कारक बना दिया।

शुरुआत में उनका एक ही मकसद था, हवा में तैरती बॉल को ज्यादा से ज्यादा ताकत से मारना। काफी प्रैक्टिस के बाद वे इसमें माहिर हो गए। फिर उन्होंने एक अलग तरह की नरम बॉल खोजी। इस बॉल में आवाज भी होती है, जिसकी स्थिति का अंदाज लगाकर नेत्रहीन व्यक्ति उसे शॉट मार सकता है।

मियोशी की मेहनत रंग लाई और 1990 में जापान में पहली नेशनल ब्लाइंड टेनिस चैंपियनशिप आयोजित की गई। आज देश के हर हिस्से में सैकड़ों नेत्रहीन लोग ब्लाइंड टेनिस खेलते हैं। जापान के अलावा ये खेल चीन, कोरिया, ताईवान, ब्रिटेन और अमेरिका में भी पहुंच गया है। भारत मे यह खेल अभी शैशव अवस्था में है और केवल हैदराबाद में एक संस्थान में इसका प्रशिक्षण कार्य होता है।

विकलांग क्रिकेट - देश में क्रिकेट की लोकप्रियता इतनी है कि बच्चों-बूढ़ों से लेकर शारीरिक अक्षम लोग भी इसके रंग में रंग जाने को तैयार रहते हैं। लोगों का इसके प्रति लगाव ही एकमात्र कारण है कि आज इस खेल का एक अन्य रुप विकलांग क्रिकेट भी सामने आ गया है। ऐसे में पैरालंपिक कमेटी आफ इंडिया कई टूर्नामेंट का आयोजन कर विकलांग खिलाड़ियों को नया मंच देता है।

हाल ही में कर्नाटक में आयोजित गंधर्व ट्राफी 2012 में कई राज्यों के खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा दिखाई। उन्हीं प्रतिभावान खिलाड़ियों में एक मोहन ठाकुर भी है, जो स्नातक तृतीय वर्ष का विद्यार्थी है। पटना के विकलांग खेल अकादमी का यह हुनरमंद खिलाड़ी शारीरिक अक्षमता के साथ आर्थिक तंगी का भी शिकार है। पर इसने अपने जज्बे और जुनून से साबित कर दिया कि अगर कुछ करने की ठानी जाये तो मंजिल मिल ही जाती है। इस खिलाड़ी ने कर्नाटक के हुबली शहर में राष्ट्रीय स्तर के पैरालंपिक प्रतियोगिता में बिहार टीम की ओर से भाग लिया और आठ राज्यों की टीमों के बीच तीसरा स्थान हासिल किया।

इसके अलावा, पटना में आयोजित बारहवीं बिहार राज्य पारालंपिक एथेलेटिक्स चैंपियनशिप के डिस्कस थ्रो में द्वितीय स्थान भी ग्रहण किया तथा पन्द्रह सौ मीटर दौड़ में तृतीय स्थान भी प्राप्त किया है। अपनी प्रतिभा के बल पर ही मोहन ने राष्ट्रीय स्तर पर परचम लहराया है। अब बस उसे सरकार से आर्थिक मदद की दरकार है जो उसकी मेहनत को और आगे ले जाने में मददगार हो सके।

विकलांग ओलम्पिक खेल- शारीरिक अक्षम लोगों के लिए खेल का परिक्षेत्र यहीं नहीं रुकता बल्कि दिन-प्रतिदिन नयी-नयी कड़ियां जुड़ती जा रही हैं। अब तो ओलम्पिक खेलों में भी विकलांग खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलने लगा है। इस साल लंदन में होने जा रहे विकलांग ओलम्पिक खेलों में उत्तरी कोरिया का खेलदल भी हिस्सेदारी करेगा। इससे पहले उत्तरी कोरिया ने विकलांग ओलम्पिक खेलों में कभी भाग नहीं लिया था।

लंदन ओलम्पिक कमेटी ने इस बाबत साफ कर दिया है कि उत्तरी कोरिया के विकलांग एथलीटों का एक दल पेइचिंग पहुँच गया है। उत्तरी कोरिया के खिलाड़ियों को यहाँ बने एक शिविर में चीन के विकलांग खिलाड़ियों के साथ ट्रेनिंग दी जाएगी। वे तैराकी, टेबल-टेनिस और एथलेटिक्स खेलों में हिस्सा लेगें। लंदन में 29 अगस्त से 9 सितम्बर तक चलने वाले विकलांग ओलम्पिक खेलों के लिए सात भारतीय खिलाड़ियों ने भी अपनी सीट बुक करा ली है।

लंदन ओलम्पिक की पैरा-ओलम्पिक स्पर्धाओं के लिये क्वालिफाई करने वाले हरियाणा के सात विकलांग खिलाड़ियों ने हर प्रतियोगिता के लिए खुद को तैयार बताया है। उन्होंने कहा कि उनका प्रयास है कि जब वो लंदन तक पहुँचे हैं तो आगे भी जायेंगे। इन सात खिलाड़ियों में अमित सरोहा-डिस्कस थ्रो, ज्ञानेन्द्र सिंह घनघस-लाँग जम्प, जयदीप सिंह-डिस्कस थ्रो, अमित कुमार-लांग जम्प, जगमेन्द्र-डिस्कस थ्रो, नरेन्द्र-जैवलिन थ्रो और विजय कुमार-जैवलिन थ्रो शामिल हैं।

छोटे कस्बों की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिभाएं- वर्तमान विकलांग प्रतिभाओं से परे कुछ होनहार ऐसे भी हैं जो भविष्य में देश के मान को बढ़ाने की तैयारियों में जुटे पड़े हैं। इनमें एक हैं खेकड़ा कस्बे के अंकुर, जो नेत्रहीन है पर गजब का एथलीट भी है। अपने देश की प्रतियोगिताओं को छोड़िए उसने अमेरिका में हुई नेत्रहीनों की विश्व युवा खेलकूद प्रतियोगिता में विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए दो सोने के पदक जीते हैं। उसका कहना है कि वह नेत्रहीन हुआ तो क्या वह देश का नाम रोशन करना चाहता है और इसके लिए वह मेहनत कर रहा है। बकौल अंकुर, अभी तो मैं सीखने के क्रम में हूँ, पर मेरा ख्वाहिश अपनी सच्ची लगन से देश का गौरव बढ़ाना है। 

इसी तरह, बड़ौत नगर की सोनिया पैरों से विकलांग है, लेकिन वह अच्छी निशानेबाज है और आजकल जौहड़ी गांव में भारतीय खेल प्राधिकरण के केंद्र पर प्रशिक्षण ले रही है। उसके पास एयर पिस्टल भी नहीं है लेकिन उधार की पिस्टल से प्रशिक्षण लेकर राज्य स्तरीय प्रतियोगिता तक पहुंच गई है। उसका कहना है कि वह विकलांग है और हथियार भी उसके पास नहीं है लेकिन अपनी मेहनत के बल पर वह विदेशों तक में नाम रोशन करेगी। ऐसे ही खेड़की गांव का रहने वाला आकाश भी विकलांग है। वह शाहमल रायफल क्लब बड़ौत पर निशानेबाजी का अभ्यास करता है। उसने स्टेट व नेशनल स्तर पर आठ पदक जीते हैं। पिछले साल उसका चयन जर्मनी में होने वाले व‌र्ल्ड कप के लिए हो गया था, लेकिन पासपोर्ट न बन पाने के कारण वह वह नहीं जा सका था। अब वह पूना में होने वाली मास्टर मीट शूटिंग चैंपियनशिप में भाग लेने की तैयारी कर रहा है।

                 कहते हैं कि कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो मंजिलें झुककर सलाम करती है। देश और दुनिया के इन शारीरिक अक्षम इंसानों ने भी अपने जज्बे से अपनी मंजिल को अपने सामने झुका दिया है। बहरहाल, जिस तरह मुफलिसी और मायूसी के अंधेरों से निकलकर इस विकलांग खिलाड़ियों ने अपने हौसलों से खुद का आसमान तैयार किया है। जिस तरह इन खिलाड़ियों ने अपनी गरीबी और अक्षमताओं को पीछे ढ़केल दिया है, वह आने वाली पीढ़ी को अपने जज्बों और हौसलों पर भरोसा करने का पाठ साबित होगा। अब वह दिन दूर नहीं जब आर्थिक और शारीरिक रूप से कमजोर बच्चे समझदार होते ही स्टेडियमों का रुख खुद कर लिया करेंगे। उनके लिए बस एक ही बात मायने रखेगी कि हौसला और हिम्मत हो तो विकलांगता तरक्की में आड़े नहीं आती। शारीरिक अक्षम पर हुनरमंद खिलाड़ियों ने साबित कर दिया है कि आगे बढ़ने का जोश और जुनून अगर दिल में जगह बना ले तो इंसानी जज्बा हर कामयाबी को अपनी झोली में डाल लेता है।

--आकाश कुमार राय

शुक्रवार, 18 मई 2012

तमन्ना ये भी है...



कोई हमको भी मिले साथ निभाने की हद तक,
मांगे खुदा से मुझे अपना बनाने की हद तक।

जो मेरी पलकों से आंसुओं को चुराने का हक रखे,
एक वो ही आये मुझे सीने से लगाने की हद तक।

वैसे तो दुनिया में अपने चाहने वाले भी बहुत हैं,
पर न चाहिए कोई अहसान जताने की हद तक।

अक्सर समेटे हैं ख्वाब हमने टूट जाने के डर से,
फिर देर तक सोता रहा नये ख्वाब सजाने की हद तक।

हर रोज लगा रहता हूँ कि बदलूं तकदीर फसानों की,
फिर तेरी याद आ जाती है सारे गम भुलाने की हद तक।

मेरे सांसों, मेरी धड़कनों की रवानी पर मत जाना, दोस्तों
इनसे चलती है जिन्दगानी सिर्फ दिखाने की हद तक।

बेबाक जिन्दगानी..


कभी अपनी भी चमक सितारों सी रही है,
आज भले हरकतें आवारों की सही है।

जो याद तेरी मेरे संग हर वक्त रही है,
उस याद के पाबंद कोई वक्त नहीं है।

सुकून आज भी देते हैं तेरी यादो के तराने,
जैसे चिर-मरुस्थल में बारिश-ए-बौछार पड़ी है।

हमने काटी वो सजा जिसका हमको इल्म नहीं है,
और वो कहते रहे कि ये सजा एकदम सही है।

मेरी बेगुनाही का पता रखकर भी वो आये नहीं,
अब तो बस सोचूं यही, दिल नहीं या मैं नहीं।

सोचता हूँ छोड़ दूँ, याद करना और सांस लेना,
पर भला ये खयाल भी दिल में क्यों आता नहीं।

अब तो मेरी जिंदगी का भी सफर चलता नहीं है,
कि रस्तें पर क्या चलें जब वो मंजिल ही नहीं है।

बीत जाये ये जिंदगी भी फकत जां-निसारी की तरह,
कि लोग फूंके भी तो कहें, ये जिन्दगी यारों सी रही है।

मंगलवार, 15 मई 2012

ईश्वर- एक सच


अगर इस जिन्दगी में तू नहीं है,
चमन तो है मगर खूशबू नहीं है,
तू उन्हें भी प्यार देता है हमेशा,
जो कहते हैं कहीं भी तू नहीं है।

तेरी ही दया है हम सफर में हैं सलामत,
वरना अपने भटकने के रस्ते कम नहीं हैं,
तू ऊपर बैठा संवारता है सबकी किस्मतें,
कभी पाया, कभी खोया, कभी माना भी नहीं है।

किस-किसको दें समझा, एक तू ही सच है,
यहां पाने को माने सब, खोने की फिक्र नहीं है,
कोई समझाये भी तो कैसे इन अल्हण हवाओं को,
जिन्हें अपनो की नहीं परवाह, गैरों से वास्ता नहीं है।

तेरी ही आरजू को तरसते रहे हैं हर दम,
और तेरी ही इनायतों को जाना भी नहीं है,
हम अपनी होशियारी के इस तरह थे कायल,
कि तेरी नियामतों का अहसान जताया भी नहीं हैं।

शुक्रवार, 11 मई 2012

माँ तू कितनी अच्छी है...


माँ सृष्टी की सबसे खूबसूरत कृति है, जिसके पास अपने से ज्यादा अपने बच्चों की बेहतरी के लिए चिंतित होने का सारा अधिकार निहित होता है। माना जाता है कि ईश्वर ने स्वयं अपनी देखभाल करने के लिए माँ की रचना की और आज वहीं माँ पूरी दुनिया बन गयी है। एक छोटे से प्यारे शब्द माँ को स्वयं भी यह नहीं पता कि वह अपने बच्चों को कितना चाहती है। माँ की निश्छल, असीमित प्यार, स्नेह और नि:स्वार्थ ममता अतुलनीय है।

इन्सान को जो प्यार अपनी माँ से मिलता है वह किसी और से नहीं मिलता। दुख-दर्द और मुसीबत में माँ एक ऐसी ढ़ाल बन कर अपने बच्चों का सहारा बनती है कि दुनिया की सभी बुराईयां भी उसे पार कर बच्चें तक नहीं पहुँच पाती। एक बच्चें की सबसे सुन्दर ध्वनि वह है जो उसके हृदय की अतल गहराईयों से आती है- वह है माँ’। प्रेम, स्नेह और आशाओं से भरा यह शब्द ‘माँ’ सर्वत्र, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी है। जो दुख के क्षणों में दिलासा देता है तो कठिन वक्त में आशा और कमजोरी भरे पल में हमारी ताकत है। दुनिया की हर चीज माँ का ही विस्तार है। सूरज के मन में पृथ्वी के लिए ममता है, उसकी गोद में पृथ्वी स्नेह की गर्मी लेती है। शाम होने तक धूप का छाता ताने रहता है सूरज, जब तक पृथ्वी समुद्र के संगीत और चिड़ियों के गान के साथ सो नहीं जाती।

यह पृथ्वी भी माँ है- वृक्षों और फूलों की, नदियों और झरनाओं की, समतल मार्गों से लेकर उबड़-खाबड़ पठारों की। असल में दुनिया में जितनी भी प्राकृतिक वस्तुए उपलब्ध हैं, उनका संरक्षण कर अपने बच्चों के उपभोग के काबिल बनाने वाली पृथ्वी ही है। इतना ही नहीं यह पेड़-पौधे भी अपने महान बीजों और फूलों के जन्मदाता है। आदिरुपा, अनादि-अनन्त रुप की देवी है माँ, जो अपने अन्दर सौन्दर्य और प्रेम का भंडार समाये हुए है। शिशु की एक मुस्कान पर अपनी खुशियां लुटा देने वाली माँ ही तो है, जो बच्चें की नींद के लिए अपनी रातें कुर्बान करती है। उसका भविष्य संवारने के लिए अपने सपनों और इच्छाओं को भी भूल जाती है।

शब्दों-अभिव्यक्तियों से परे और दुनिया के हर संबंध से ऊंची होती है माँ। थोड़ा बचपन की ओर लौटे तो... वो माँ ही तो थी, छोटी सी बीमारी में भी दिन-रात सिरहाने बैठी जागा करती थी। परियों की, जानवरों की अनगिनत कहानियां होती उसकी जुबान पर और वह अपनी मधुर लोरियों से हमारी नींद को ख्वाबों से सजा देती थी। माँ ही तो है जो नैतिक, सामाजिक और मानवीय मूल्यों के बीज हमारे अन्तर्मन में बचपन से ही डाल देती है, ताकि हम वास्तविक अर्थों में पूर्ण इंसान बन सके।

समय के साथ-साथ माँ की भूमिकाओं में भी परिवर्तन आया है। अब वह परम्परागत अर्थ वाली माँ से इतर भी समाज में अलग पहचान  और खुद का वजूद रखने लगी है। आज एक माँ न सिर्फ परिवार बल्कि समाज, राज्य और देश की अर्थव्यवस्था से लेकर उसकी नीतियों में भी सक्रिय तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। किन्तु यह वह बिन्दू है, जहां स्त्री की दोनों भूमिकाओं के बीच परस्पर टकराव भी उत्पन्न होता है। आज कई व्यापारिक, खेल और फिल्म जगत की माये हैं जो आधुनिक और परम्परागत माँ की भूमिकाओं को निभाने का सफल प्रयास कर रही हैं। फिर भी समाज अक्सर कहता है कि सैलिब्रिटी माँ एक औसत भारतीय माँ का व्यक्तित्व नहीं निर्धारित करती, बल्कि सिर्फ एक छवि बनाती है। वास्तव में आज की आधुनिक माँ अपने परम्परागत और कामकाजी व्यक्तित्व के बीच लगातार सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही है। दोनों छवियों में टकराहट होती है, तभी परम्परागत माँ जीत जाती है।  

माँ ऐसा शब्द है जो बच्चा पैदा होने के बाद सबसे पहले बोलता है, इसलिए कहा जाता है कि ईश्वर का दूसरा रुप है माँ। सच ही है माँ जैसा दूसरा कोई हो भी नहीं सकता। कितने रुप समाये होती है माँ अपने आप में। नौ माह तक बच्चे का पेट में रखना और फिर उसके जन्म के बाद उसकी देखभाल में लग जाना, उसका पल-पल ख्याल रखना। रोने पर चुप कराना और भूख लगने पर दूध पिलाना, बस हर पल अपने बच्चों की खुशियों में ही डूबे रहती है माँ। आज सामाजिक परिदृश्य बदल गया है, दुनिया तेजी से बदल रही है. हर चीज में परिवर्तन आया है पर बदला नहीं है तो माँ का रुप। वही ममता, वही प्यार, वही स्नेह और वही गुस्सा, सब कुछ वैसा ही कुछ भी तो नहीं बदला। पहले की समय में महिलाएं घर पर ही रहती थी तो बच्चों और परिवार की देखभाल में ही जुटी रहती, पर अब समय के साथ यहां भी बदलाव हुआ है। अब माँ आफिस से लेकर घर तक हर काम बखूबी निभा रही है। घर की चिन्ता से लेकर आफिस के बोझ को सहते हुए भी माँ के चेहरे पर कोई शिकन नहीं होता, बल्कि घर पर बच्चों की एक मुस्कान और प्यार भरे शब्द से वह सारे कष्टों को भूल आह्लादित हो जाती है।  

आज जीवन शैली निरन्तर प्रगतिशील और उपभोक्तावादी हुई है, लेकिन माँ हमेशा दिल से माँ रही है। चाहे वह बर्बर युग की माँ रही हो, मध्यकाल की माँ हो, औद्योगिक क्रांति के दौर की माँ रही हो या फिर आज की सुपर मॉम। माँ की भावनाओं में रत्ती भर का कोई परिवर्तन नहीं आया है। आज के समय में विशेषकर महानगरों में 27 फीसदी महिलाएं अपने घर-परिवार की आर्थिक जिम्मेदारियों को उठाती हैं। पिछले पांच दशक में महिलाओं के हिस्से में आने वाली काम की जिम्मेदारियों में 35 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है। सुपर मॉम बन जाने का मतलब यह नहीं हुआ कि वह घर की तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सिर्फ और सिर्फ आर्थिक उपार्जन करती हैं। पिछले दिनों एक सरकारी सर्वेक्षण में ये बात उभर कर आयी है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर प्राइवेट फर्म तक में काम करने वाली 99.5 प्रतिशत महिलाएं दफ्तर से छुट्टी के बाद सीधे घर आती हैं। जबकि पुरुषों के विषय में आंकड़े कुछ और ही बातें बताते हैं। दफ्तर का काम निबटा सीधे घर पहुँचने वाले पुरुषों का प्रतिशत महज 75 से 80 फीसदी है। शेष 20-25 फीसदी पुरुष दिनभर की थकान मिटाने के लिए पार्टियों और दोस्तों का सहारा लेते हैं, पर महिलाएं आफिस की जिम्मेदारियों के निर्वाह कर घर के लिए तत्पर रहती हैं।

मुम्बई जो देश का सबसे ज्यादा आधुनिक और कैरियर के लिहाज से तेज रफ्तार वाला शहर माना जाता है वहां पर भी महिलाएं माँ बनने की खुशी को कैरियर से ज्यादा तवज्जों देने की बात करती हैं। देश की राजधानी दिल्ली सहित अन्य बड़े शहरों में भी बीते सालों में कुछ ऐसा ही ट्रेंड देखने को मिला है। इन महानगरों की 90 से 95 फीसदी महिलाओं का औसत बयान यही है कि वह समय पर माँ बनने के लिए नौकरी छोड़नी पड़े तो वो ऐसा करेंगी। माँ को समाज में श्रेष्ठ होने का दर्जा आज से नहीं बल्कि पुराणों के समय से ही है। उस युग में भी माताएं सदाचार, चरित्र, संस्कार और कर्तव्यपालन को अपने व्यक्तित्व से परिभाषित करती थी। ऐसी ही एक गरिमामयी माँ थीं सती अनुसुइया, जिन्होंने भगवान को भी अपनी ममता के आगे नतमस्तक कर दिया था। सती अनुसुइया ने त्रिदेवों ब्रम्हा, विष्णु और महेश को शिशु बना दुग्धपान कराया था। वे जब पुन: यथार्थ रुप में आये तो माँ की शक्ति से अभिभूत हुए थे, तब त्रिदेव भी कहे बिना ना रह सके कि माँ तुम महान हो। इसी तरह भगवान राम की माँ कोशल्या, कन्हैया की माँ यशोदा और गणेश की माँ पार्वती पौराणिक काल की वो माताएं हैं, जिन्होंने माँ के उच्च आदर्श को समाज के सामने रखा।

माँ और बच्चे का बड़ा ही आश्चर्यजनक रिश्ता है। माँ अपने बच्चों के सभी भावों का बिना उसके कोई शब्द उगले भी पहचान लेती है। चाहे बच्चा संकट में हो या फिर उसे माँ की जरुरत हो माँ की धड़कने अपने-आप बढ़ जाती है और उसका विश्वास की बच्चा सकुशल होगा अंतत: जीत ही जाता है। अगर एक मां को बालिवुडिया चश्में से देखें तो आमिर खान की फिल्म तारे जमीन पर’ का वह गाना खुद ही सारी कहानी बयां करता है कि ‘...तुझे सब है पता मेरा माँ, मैं कभी घबराता नहीं, पर अंधेरों से डरता हूँ मैं माँ, तुझे सब है पता मेरी माँ।’ वास्तव में एक माँ को सब पता होता है कि किसे किस चीज की जरुरत है। एक अन्य फिल्म ‘राजा और रंक’ का गाना ‘माँ तू कितनी अच्छी है... भोली-भाली है, प्यारी है.. है माँ।’ फिल्मी गीतों में माँ को इतनी उपमाये दी गयी है कि शायद ही किसी को मिल सकें। इस तरह की बहुत सी फिल्में हैं, जिसमें माँ को इतना विशाल रुप दिया गया है कि जो अधिकारपूर्वक अपने फैसले लेती है और पूरे परिवार का ध्यान रखती है।

माँ एक ऐसा शब्द है दुनिया में जिसके साथ चाहे जितनी भी उपमाये और विशेषण जोड़ दो, वो कभी भी अतिश्योक्ति की श्रेणी में नहीं आयेगा। माँ की महत्ता को दर्शाती हुई एक यहूदी कहावत है कि... ‘खुदा ने पूरा संसार रचा, वह खुद पूरी दुनिया की देखभाल नहीं कर सकता था, इसलिए उसने माँ की रचना की। इसी तरह एक चीनी कहावत के अनुसार, ‘पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही बच्चा खूबसूरत है और वह हर माँ के पास है।’ माँ को शब्दों में बता पाना तो संभव नहीं है पर कुछ महान आत्माओं ने अपनी वाणी से माँ की प्रमुखता को जरुर शब्द दिये हैं। जैसे की हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा कि ‘पुरुष का काम दिन से शाम तक खत्म हो जाता है पर माँ का काम कभी खत्म नहीं होता।’ वहीं प्रथम अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों में, ‘आज मैं जो भी हूँ और भविष्य में जो भी बनूंगा, उसके लिए मैं अपनी माँ के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ।’ जबकि माँ के रुप में नारी शक्ती को पहचानते हुए लाला लाजपतराय ने कहा कि ‘तुम मुझे कुछ अच्छी माँ लाकर दो, मैं तुम्हें बेहतर देश दूंगा।’ महान विभूतियों के इन शब्दों और माँ के प्रति के बच्चों की प्रगाढ़ भावों से एक ही बात सत्य है कि अगर दुनिया में जीवन हैं   और उसे बेहतर बनाने का कार्य कोई कर रहा है तो वह सिर्फ माँ है। बच्चों की प्राथमिक शिक्षिका की भाँति वह अपने बच्चों को समाज में अच्छाई और बुराई में भेद कर बेहतर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है। 

"मातृ दिवस के अवसर पर प्यारी-प्यारी ‘मां’ की याद में..." --आकाश कुमार राय

गुरुवार, 10 मई 2012

बांटो खुशियां ...

हर राह पर यारों मुस्कुराते चलो,
प्यार के गीत हर वक्त गाते चलो,
ना समझो जिन्दगी फूलों की सेज है,
हो कांटे तो उन्हें भी गले लगाते चलो,
फक्र खुद पर करो, छोड़ो गैरों को तुम,
हर कदम पर हाथ मिलाते चलो,
राहों में ही मिलेगी मंजिल तुम्हें,
खुद भी हँसों और औरों को भी हँसाते चलो।

बुधवार, 9 मई 2012

चन्द पंक्तियां...

चार...

राही-ए-ख्वाब की मंजिल से पहले वापसी नहीं मुमकिन,
कि वो मर भी न पायेंगे, जीवन की दुश्वारियां अलग रहीं।

क्या निकालू इनमें नुख्श, कहां इन्हें दूर तक जाना है,
मैं तो निकालू उनमें नुख्श, जिन्हें दूर तलक जाना है।

ऐ दिल तू करता जा, इश्क-ए-राह में नादानियां जी-भरके,
कि जब तक तेरा दर्द ना छलके, लोग शेर समझते हैं कहां।

यकीं तो है दिल को, फिर तुमसे मुलाकात ना होगी,
पर दुआ एक बार मिलने की, जाने क्यों निकलती है।

इसी डर से तो अब रात को हम सोते नहीं हैं,
कि ख्वाबों में भी बिछड़ोंगे तो जीयेंगे कैसे...।

ऐ जिन्दगी अब तू भी रुठ जा, किसी बहाने मुझसे,
कि रुठे हुए लोगों को मनाने में मशक्कत बहुत है।

राह भी उनको मिलती है, जो राहगीर बन चलते हैं,
मंजिल भी मिल जाती है, जब हौंसलें यकीं में ढ़लते हैं।

ताज्जुब नहीं इसमें सबकी हमसे नहीं पटती,
बहुत से लोग दुनिया में पसंदीदा नहीं होते।

तय क्या कर दी मंजिल अपनी, वो ऊंचे पे जा बैठी,
अब उसकी ही तलाश में, हम कबसे सफर में हैं...।

ये सोच कर नहीं देखता हूँ अब मैं ख्वाब भी कोई,
कि तेरी याद ने सोने न दिया तो ख्वाब अधूरे रहेंगे।

ये तेरा कमाल है जो हमें सब जानने लगे,
वर्ना तो हम तन्हाईयों के पते पर रहते थे।

मेरी चुप्पी इसलिए कि ना बढ़े और फसाद,
पर असलियत में तुझसे गिले हैं तो सही...।

अच्छा वक्त भी अब तो सरकार सा ही लगने लगा है,
कि आसरे बढ़ते जाते हैं, पर उम्मीद पूरी नहीं होती।

मोहब्बत में यही एक बात सबको सताती है,
कि मेरे सिवा कोई और तो अजीज नहीं उसे।

सीख रहा हूँ अब लहरों से उलझकर जीने का तरीका, 
कि लोग कहते हैं साहिल पर बैठने वाले पार नहीं होते।

उड़ते हुए परिंदों से मत पूछो क्या है थकान के मायने,
उसकी नज़र में मंजिल से कम कुछ समझौता नहीं।

चंद पंक्तियां...

तीन...

ये रास्ते ले ही जायेंगे मंजिल तक हमें,
कभी सुना है... अंधेरों ने सवेरा होने न दिया हो।

मेरी खामोशी को मेरा गुमान न समझ,
दिल की बातों को अल्फाज बयां नहीं करते।

नया दिन, नयी सुबह, नयी ताजगी,
वहीं हौसला, वहीं उम्मीदें, वहीं सादगी।

किसी ने प्यार में फिर आजमाया है किसी को,
तभी मेरे शहर में आज एक और जनाजा उठा है।

ये माना लौट कर आते नहीं गुजरे हुए लम्हे,
मगर वो अपनी कुछ परछाईयां तो छोड़ जाते हैं।

कैद थे अब तक तेरे दिन-ओ-जान में हम,
तुम जो रुठे हो तो लगता है आजाद हुए हैं।

सुना था इश्क हुस्न की मोहताज नहीं होता,
फिर जाने क्या देखती है दुनिया सूरत-ए-यार में।

वो जीत जाता है अक्सर मुझसे, हर छोटी-बड़ी लड़ाई में।
और मैं खुश हूँ ये सोचकर, अपनों से लड़ाई में घाटा ही होगा।।

फैली सियाही से बिखरे पन्नों पर लिखी,
एक अधूरी सी कहानी है जिन्दगी मेरी...।

दीवार के उस पार मेरा ठिकाना रहा है,
एक हसीन चेहरे का आना-जाना रहा है।

मतलब से मोहब्बत का दिखावा करने वाले,
जिन्दगी में देह को इश्क का पैमाना बना देते हैं।

आसमान छूने के मेरे इरादे बुलंद हैं,
छलांग जरुर लगाउंगा ये फायदेमंद है।

विचित्र हाल है, कुदरत की करिश्माई है।
इश्क में बार-बार टूटकर बिखरजाना हौसला अफजाई है।।

जाने कैसे जालिम है वो, जो इम्तहां लेते हैं इश्क का,
मोहब्बत के ढ़ोल पीटते हैं, पर सबूतों की बिसात पर।

चुभते हुए ख्वाबों से कह दो, कि अब आया न करें।
हम तन्हा तसल्ली से रहते हैं, बेकार उलझाया न करें।

चैन और जुनूं की बातें वो भी एक साथ,
लगता है इश्क का एक और मरीज बढ़ गया।

रविवार, 6 मई 2012

अहसान है उनका...


"दिल की उदासियों के नाम कोई पैगाम नहीं उनका,
वो याद तो हैं बहुत पर कोई अहतराम नहीं उनका।
मेरी कोशिशों ने चाहतों को शब्दों में ढाल तो दिया,
पर परचों के सिलसिलों में कहीं नाम नहीं उनका।
हैं ये मेरी परेशानी, मैंने बनाये सब झमेले,
ना कहना कोई आ के कि सब अफसाना है उनका।  
उनकी यादें भी बहुत अहतीयात से पास है रखी,
कि वो मांग ले कभी कहकर ये सामान है उनका।
हम यादों को भी लौटांयेंगे उनके हसीं जतन मानकर,
चलो आखिरी बार मुखातिब हुए अहसान है उनका।"

शनिवार, 5 मई 2012

इश्क...

"होश में बेहोश हूँ, पर
बेहोशी में भी कुछ होश है।
औरों की हालत जो देखी,
तो हर कोई मदहोश है।

ये नशा किसका है, और
क्यों इस कदर चढ़ गया।
जिसको देखा वो ही इसमें,
हद से आगे बढ़ गया।

इस नशे में डूबना ही,
इस नशे की है दवा।
हर कोई अंजान है,
आखिर सबको क्या हुआ।

अब सोचता हूँ जब डूबना तय है तो,
क्यों न लुफ्त उठाऊं मैं भी इसका।
पर आता खयाल जिंदगी बड़ी प्यारी है,
और सिर्फ एक अहसास के वास्ते...
इस नियामत को गंवाना नादानी है..।"

बुधवार, 2 मई 2012

ये यादें...


पल-पल किसी के खयाल से रुलाती हैं ये यादें,
जिन्दगी को और भी तन्हा कर जाती हैं ये यादें।
बेशक वीरान लगती है जिन्दगी किसी के जाने के बाद,
पर किसी के पास होने का एहसास दिलाती है ये यादें।
माना कि आंखों से बरसता है इन्तजार किसी का,
होंठों पर फिर भी मुस्कान दे जाती हैं ये यादें...।।

तड़प...


आज फिर नींद इन आंखों से ओझल रही है,
कि थकान भी बहुत है पर करार नहीं कोई।

जाने किस घड़ी का अब इंतजार है इन्हें,
कि लोरिया सुनाने भी आयेगा क्या कोई।

जब जागते रहे तो कोई साथ न दे सका,
अब सोने की ख्वाहिश है तो नींद है खोई।

कैसे जहान-ए-इश्क में लोग डूब जाते हैं,
हम जबसे निकले हैं नहीं कतरा नसीब कोई।

ये किस्मत की बात है या फिर साजिशों का दौर है,
रखते हैं हम भी दिले नाजुक सीने में, नहीं बुतमईन कोई।

अब सोचते हैं फाड़कर जहान को दिखला ही दें सीना,
कि दिल यही लोथड़ा है या और चीज हुई कोई।

गधे का मानव अवतार..


गधों स करों दोस्ती इसके कार्य से संसार है,
हर कर्म को करने को ये रहता तैयार है,
हर रोज उठकर जीवन को बोठ उठाता है,
शाम पहर होते, थक कर सो जाता है,
फिर कल के बोझ के लिए करता विचार है,
इसीलिए कहता हूँ...
इन्सान अपने कर्म से गधे का अवतार है।।

करतबों पर ध्यान दो..


आज फिर यादों के मंजर ने करवटें ली,
तो ध्यान में आ गई बात एक मित्र की,
कि कहता रहता मुझसे वो हर पल यही...
कि अपनी काबिलियत का इम्तिहान लो,
पालते हो कुछ पाने की ख्वाहिशें जो दिल में,
तो किस्मतों को त्याग कर करतबों पर ध्यान दो।

चन्द पंक्तियां...


एक...
थी खुशियों सी हरी-भरी जिन्दगी, तुम जब साथ थे मेरे,
अब डाल से टूटी हुई पत्तियों का सा हाल है अपना।
हो के तुमसे अलग सूखे खरपतवार के ढ़रे हुए हैं,
कि लोग बटोरतें भी हैं हमें तो बस जलाने के लिए।

दर्द जब दर्द की हद के पार जाता है,
तब दर्द भी दर्द को बेजार पाता है।
एक दर्द ही है जो सदा दिल को लुभाता है,
वर्ना यादों के दर्द के सिवा तू कहां सताता है।

रातों को ख्वाब में आने की शिकायत है,
दिन का सुकून चुराने की शिकायत है,
दूर हो कर भी इतने पास हो दिल के,
तुझको भूल न पाने की शिकायत है।

मुकम्मल हो गया वो जो इश्क में तो,
हर बंदे में उसे रब नजर आने लगा,
नहीं फर्क रहा अब उसके लिए,
दर्द और इश्क के दरमियां..
अब तो दर्द में ही उसे इश्क नजर आने लगा।

बहुत रोशन सी रहती है ये बस्ती फिर क्यों,
हर चेहरा यहां अजनबी सा लगता है।
ना इश्क में ठोकर खायी है मैंने,
ना ही ना-उम्मीद हुआ हूँ जिन्दगी से,
फिर क्यों इस शहर की महफिल में भी,
हर पल दिल तन्हा-तन्हा रहता है।

गमों की आंच पर आंसु उबालकर देखो,
बनेगें रंग चटकीले, किसी पर डालकर देखो,
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरुर कम होगी,
किसी के पांव का कांटा निकाल कर देखो।

सुबह की सूरत भी देख ही लेंगे,
अंधेरे के साये अब ढ़लने जो लगे हैं।
इतना गुरुर खुद पर करते नहीं मगर,
दीये की तरह हम अब जलने तो लगे हैं।

दर्द बनकर पिघल रहा हूँ मैं,
गीत ग़जलों में ढ़ल रहा हूँ मैं,
उनकी फितरत बदल नहीं सकती,
अपनी आदत को बदल रहा हूँ मैं।

सारा ज्ञान मिला मोहे जग से,
तुहिं एक पास न होय।
नाम तेरा जब दिल ने जाना,
अब ज्ञान बचा ना कोय।।

लाख उठा करे हर मौज के सीने में भंवर,
पर किनारा है कि बढ़ता ही चला जाता है।
आंधियां आये या मंजिल पर छा जाये अंधेरा,
कांरवा है कि गुजरता ही चला जाता है।

खामोशियां ही महफिल की सोजो-साज होती हैं,
कि मेरी बेजुबानी ही मेरी आवाज होती है।
यहां पे प्यासा रहकर ही मैं जश्ने-जाम बनाता हूँ,
इस महफिल में आकर बिन पिये ही झूम जाता हूँ।

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