शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

प्यार उत्साह और इंतजार


इतना संभल-संभल के न चलो,
कि न फिसल पाओ यारों....
इतनी तो मार लो कि
किसी से टकरा जाओ यारों,
टकराहट के बिना मुलाकात कैसे होगी,
हर मुलाकात के बाद ही तो बात बनेगी,
बातों के बीच अपनी राग छेड़ देना प्यारे,
मोहब्बत के अरमान उन पर थोप देना सारे,
होगा उनको यकीं तो साथ वो भी देंगे,
नहीं तो फिर संभल के चलना,
कहीं और फिसल लेंगें...।।

कैसे करुं...


तेरे बिना मैं कोई फैसला कैसे करुं,
टूट चुका हूँ अब हौसला कैसे करुं।

सोचा नहीं कभी तेरे बिन भी होगी जिंदगी,
अब खुद को भला तुझसे जुदा कैसे करुं,

दिल से चाहा तुझको तो गुनाह कर दिया,
मुकर्रर खुद को इस गुनाह की सजा कैसे करुं।

हो सके तो तू ही कर दे मेर दिल का फैसला,
मैं फिर तुझको तुझी से पाने की फरियाद कैसे करुं...।

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

चल अब गांव का रुख करें...

ये शहरों की जिन्दगी हमें रास नहीं आती...
ताजी हवा भी अब यहाँ पास नहीं आती...
बेचैन है धड़कन, तन्हा ये दिल भी है...
लगता है अब कोई दुआ भी खास नहीं आती...

कल तक रही मेरे गांव में बसती मेरी जन्नत,
रहता हूँ अब शहर में पर वो सुकूं-ए-रात नहीं आती...
कंक्रीट के जंगल हैं, झिलमिलता साये हैं मकानों के...
पर इनमें कहीं भी अपने घर वाली बात नहीं आती...

कि महफिले रोज लगती है, यारों के हुजूम में...
पर जाने क्यों वहां भी अब जिन्दगी बसर नहीं आती...
अब तो बस है याद आता, गांव का वो खरिहान-बगिचा...
कि ख्वाब में भी दौड़ पड़ता हूँ, पर आंखें पहुँच नहीं पाती...

जो मिट्टी है मेरे गाँव की वो जन्नत का नूर है...
इन शहरी धूल से तो अब महक भी नहीं आती...
लगता है अब यही कि बस गांव का रुख करें...
कि इसके आगे तो मंजिल भी कोई नज़र नहीं आती...

रविवार, 22 अप्रैल 2012

कहां आजाद रहते हैं...

"अब सूरज की तपन से भी डर नहीं लगता,
कि उससे ज्यादा आग तो सीने में जलते हैं।

दिन भर जलता रहता मन, पर आंच नहीं कोई,
गुब्बार भरा सीने में, दर्द आंखों से छलकते हैं।

चढ़े जो ताप सिर पर और दवा ले लूँ भी तो क्या,
जलन जो दिल में उठती है उसे यादों से मलते हैं।

कहां ढ़ूंढ़े तेरी याद से बचने का अब आसरा,
जहां देखों तेरी यादों के शोले ही तो गिरते हैं।

ना कोई दोस्त ना साथी रहा, इस दर्द से जुदा,
हर किसी के मन में यादों के अंगार जलते हैं।

भला कब तक दिलों को आग देकर हम रहें जिंदा,
तुम्हें हम भूले ही बैठे हैं, पर कहां आजाद रहते हैं।"

मुहब्बत ऐसी धड़कन है...

"मुहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती,
जुबां पर दिल की बेचैनी कभी लाई नहीं जाती।

जता देने से दिल हल्का तो हो जाता है पर यारों,
शब्दों की बिसात पर जज्बातें बिछाई नहीं जाती।

समझना हो जो बातों को तो आखों से ही पढ़ने दो,
कि निगाहों की पढ़ाई फिर झुठलाई नहीं जाती।

यकीनन याद आया होगा उनको भी इश्क का ककहरा,
वर्ना, नीची नजरों और दबें होंठों पर मुस्काने नहीं आती।

जुबां ना-ना कहे, सिर भी हिकारत में हिले, ये इंकार होता है,
पर दिल की धड़कनों से राज-ए-इश्क छिपाई नहीं जाती।

मुकरने दो उन्हें तुम भी, छोड़ों उनकी गैरत पर,
वो लौट ही आयेंगे, मोहब्बत कहां दबाई जाती है।

अगर उनका यहीं है फैसला तो सुन ले जहां सारा,
किसी के इश्क में मरने की फितरत हमको नहीं भाती।

चाहा था, चाहता हूँ और उन्हें आगे भी मैं चाहूंगा,
उन्हें पाने न पाने से चाहत मेरी, मर तो नहीं जाती।"

रविवार, 15 अप्रैल 2012

मां से बातें...

"मस्तियां अपनी आज गुमा दी माँ मैंने,
जिंदगी अब अपनी उलझा ली माँ मैंने।

मिले ना सुकून के चंद लम्हें भी तो,
आंसुओं से आंख अपनी भिगा ली माँ मैंने।

तू हमेशा कहती रहती हौसला रख अपने पर,
आज तो देख उम्मीद की लौ भी बुझा दी माँ मैंने।

बनाता था कभी बचपन में कागज से कश्तियाँ,
वक्त के थपेड़ों में सारी कश्तियाँ डूबा दी माँ मैंने।

आज मैं भी मजबूर हूँ, तू भी अपने दुलारे से दूर है,
बुझदिली-आवारगी में दूरियाँ और बढ़ा दी माँ मैंने।

इतना टूटा कि अपने चेहरे पे मल ही अकेलेपन की ख़ाक,
अंधेरों में गुम अपनी होली आप तन्हा मना ली माँ मैंने।"

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

हम भी मोहब्बत किया करते थे..

"जब तेरी धुन में रहा करते थे,
हम भी चुपचाप जीया करते थे।

आंखों में प्यास हुआ करती थी,
दिल में हर पल तूफां उठा करते थे।

लोग पूछते थे दुनिया-जहान की बातें,
और हम बस तेरा जिक्र किया करते थे।

सच समझकर तेरे हर झूठे वायदे को,
निगाहें अपनी रस्तों पर टिका रखते थे।

जब भी आहट हो जाये तेरे आने की,
दिल में हजारों फूल खिला करते थे।

दिल के दरों-दीवार को सजाने की खातिर,
हर सांस को तेरे नाम की सजा देते थे।

कल फिर आई तेरी याद ने, सब ताजा कर दिया,
कि हम भी कभी मोहब्बत किया करते थे।"

नसरत फतह अली जी की शानदार गजल...

ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है...

"ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है..
किसी की चाहत को तोड़ दिया,
तो किसी टूटे की चाहत बनी है।
कभी लाखों उम्मीदों को कतरा बना दिया,
कभी लाखों की उम्मीद का कतरा तू रही है।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।

जिसने सजाये ख्वाब आंखों की मानिंद,
उनके लिए नींद का कोटा नहीं दिया।
और जो ऊंचाईयों को पाने की ख्वाहीश लिये जन्में,
उन्हें ऐश-ओ-आराम की आगोश में सुला दिया।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।

हम तेरी बेहतरी के वास्ते लड़ते रहे जहां में,
और तू बेहतरीन बन अमीर की कोठी सजा रही है।
इंसा को उम्मीदों-हौंसलों की कहानी बताने वाली,
तू भी उसकी हार पर कहकहे-ठहाके लगा रही है।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।

पहले तो सिखाती है हार से लड़ने औ जीतने के नुस्खे,
फिर अंधी-दौड़ में लोगों को अपनों से लड़ा रही है।
जब देती है जीत के शिखर का वरदान किसी को,
जाने फिर क्यों तन्हाई की सौगात उसे भेज रही है।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।

जन्म से मरण तक तू खेल बनी रही,
लोग बस हारते रहे, तू हीं जीतती रही।
अन्तिम सफर में भी तुझे ही मीर कहें लोग,
कि मरना बवाल है, जिन्दगी कमाल रही।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।"

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