मंगलवार, 27 मार्च 2012

दिल से निकली पंक्तियां..

"आजकल नहीं देख पा रहा, सूरज की प्रभात लालिमा।
मैं अक्सर देर से उठता हूँ, वो सुबह जल्दी निकलता है।"

"मैनें खुद के लिए खुदा से मांगना ही छोड़ दिया है,
जब से उसने किसी और से चाहत की बात कही है।"

"वो मुझसे पूछता है, ख्वाब किस किस के देखते हो,
बेखबर जानता ही नही, यादें उसकी सोने कहाँ देती हैं!"

"मुस्कुराने से भी होता है बयां गम-ए-दिल,
मुझे रोने की आदत हो ये जरुरी तो नहीं..।"

"तुझसे बुरा दुनिया मे कोई नहीं है इश्क,
हर भले को बिगाड़ने का काम किया तूने।"

"हमें अच्छा नहीं लगता, कोई हम-नाम तेरा,
कोई हो तुझसा, तो फिर नाम तुम्हारा रखे।"

"जब भी सोचता हूँ तेरे बिना क्या है मेरी जिन्दगी,
एक उजड़े हुए गुलिस्तां का मंजर याद आता है।"

"ख्वाहिशों का काफीला भी अजीब ही होता है,
अक्सर वहीं से गुजरता है जहां रास्ते नहीं होते।"

"तुम जो इजाजत दो तो चंद लफ्जों में कह डालें,
कि तुम बिन मर तो सकते हैं, पर जी नहीं सकते।"

"ये लफ्जों की शरारत है, जरा संभल कर लिखना तुम,
मोहब्बत लफ्ज भर है लेकिन, ये अक्सर हो भी जाती है।"

"जिन्दगी तो मेरे जन्म के पहले से ही खूबसूरत है,
मेरी कोशिश तो इसे और बेहतर बनाने की है...।"

"मंजिलों का गम करने से मंजिलें नहीं मिला करती,
हौसले भी टूट जाते हैं, अक्सर उदास रहने से...।"

"जो तुम्हें देख के फिर और किसी के देखे,
वो एक तमाशाई है तलब-ए-दीदार नहीं...।"

"ये मैं ही था, बचा के खुद को ले आया कनारे तक,
वर्ना, समंदर ने बहुत मौका दिया था डूब जाने का।"

"बहुत मुश्किल है कोई लगाये मेरी चाहतों का अंदाजा,
कि मेरी चाहतों का समंदर उनकी सोच से भी गहरा है..।"

"मैं काबिल-ए-नफरत हूँ तो छोड़ दे मुझको,
तू मुझसे यूं दिखावे की मोहब्बत न किया कर..।"

"तुझसे रुठने के बहाने तो बहुत हैं मगर,
डरता हूँ गर मनाने न आया तो क्या करेंगे।"

"उसकी मोहब्बत का सिलसिला भी क्या अजीब सिलसिला था,
अपना भी नहीं बनाया और किसी का होने भी नहीं दिया...।"

"अल्फाज इन्सान के गुलाम होते हैं, मगर बोलने से पहले ।
बोलने के बाद इन्सान लफ्जों का गुलाम बन जाता है ।।"

"सफर तो है मेरा, रफ्तार मगर तुम हो।
न होते तुम तो शायद तेज दौड़ता,
या किसी ठौर पर रुक ही जाता...।"

"उनकी शिकायत है की मैं तारीफ नहीं करता,
कैसे कहूं की अब मैं सच बोलने लगा हूँ...।"

"वाह रे दुनिया की साफगोई,
दीवारो को रंगों में बांटा, और
इंसानो को मजहबों के फेर में..."

"मत छोड़ मेरा साथ तू जिंदगी में इस तरह, दोस्त
शायद हम जिंदा हैं तुम्हारे ही साथ रहने से..."

"यह विसंगति जिंदगी के द्वार सौ-सौ बार रोई....
चाह में है और कोई...बांह में है और कोई...."

"मरना तो इस जहान में कोई हादसा नहीं,
इस दौर-ए-नागवारी में जीना कमाल है...।”"

"जिन राहों पे एक उमर तेरे साथ रहा हूँ,
कुछ रोज से वो रास्ते सुनसान बहुत हैं..."

"अबकी वो बिछड़ेगा तो ये इल्तजा करुंगे उससे,
बिन अपने जीने का कोई अंदाज तो सिखाता जा..."

"वो कहती रहीं हर बार, मेरी मुस्कुराट कमाल है..
सच ही कह रही थीं शायद, तभी तो
आज जाते हुए, साथ सिर्फ मेरी मुस्कुराहट ले गयी।"

"काश ! वो सुबह नींद से जागे तो मुझसे लड़ने आये,
कि तुम कौन होते है मेरे ख्वाबों में आने वाले।"

"गैरों को कब फुरसत है गम देने की,
जब होता है कोई हमदम होता है।"

"बर्बाद बस्तियों में किसे ढ़ूढ़ते हो तुम,
उजड़े हुए लोगों के ठिकाने नहीं होते।"
"
"कफन पड़ा तन पे तो ये मालूम हुआ,
कि लोग परदा नशीनों को इतना चाहते क्यों हैं।"

"कैसी खामोशी है इन लम्हों में,
जैसे सारे रंग उड़ चले हैं जिन्दगी के हमारे।"

"मैं इस लिए भी अक्सर अपनी ख्वाहिशों को मार देता हूँ,
कि मुझे वो नहीं मिला करता जो ख्वाहिश बन जाता है।"

"आसां नहीं आबाद करना घर मोहब्बत का,
ये उनका काम है जो जिन्दगी बरबाद करते हैं।"

"आजकल सूरज से बहुत कम मेरी आंख मिलती है।
रात जागते बीत जाती है, दिन आंखों खोलने में गुजरती है।"

"जगी है प्यास ऐसी की, समन्दर भी कम लग रहा।
पर मुकद्दर ऐसा है, कि जहर भी नहीं मिल रहा।।"

कुछ कहीं-अनकही..

"रात सुनती रही मैं सुनाता रहा,
दर्द की दास्तां मैं बनाता रहा।

लोग लोगों से चाहत निभाते रहे,
एक वो था मेरा दिल जलाता रहा।

धूप छांव सी उसकी तबीयत रही,
वो निगाहें मिलाता चुराता रहा।

दिल के मेहमान खाने में रौनक रही,
कोई आता रहा, कोई जाता रहा।

साथियों ने भी सारा माजरा समझ लिया,
मैं जो नाम तेरा लिखता मिटाता रहा।

एक मैं ही प्यासा रहा दोस्तों,
लोग पीते रहे मैं पिलाता रहा।"

मैं उसका दिल-ओ-जान हो जाऊं...

"अपनी खुशियां लुटाकर उसपे कुर्बान हो जाऊं,
काश कुछ दिन उसके शहर में मेहमान हो जाऊं।

वो अपना नायाब दिल मुझको देदे और फिर मांगे,
मैं मुकर जाऊं और बे-इमान हो जाऊं।

वो मुझपे सितम करे हर किसी की तरह,
मैं उसकी इस अदा पर भी मेहरबान हो जाऊं।

वो मेरे पांव के नीचे से जमीन भी खींच ले,
और फिर मैं उसका आसमान हो जाऊं।

अब तो मुझे इतनी मोहब्बत हो गयी उससे,
कि ऊपर वाला ही दिखाये कोई करामात...
और मैं उसका दिल-ओ-जान हो जाऊं।"

सोमवार, 19 मार्च 2012

सच्चाई की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है...

पत्रकारों को सच सामने लाने के लिए जोखिम उठाने पड़ते हैं और इस सच की कीमत भी चुकानी पड़ती है। यह सच और झूंठ की मुठभेड़ है जो अनादिकाल से चली आ रही है तथा अपने-अपने मोर्चे पर बोलकर अथवा लिखकर हर दौर में नारद से लेकर गांधी तक महान लोगों ने समाज में बदलाव की लहर लाने का काम किया। इस काम में साहित्कारों की भूमिका भी सराहनीय रही है, जिन्होंने कलम के सिपाही के तौर पर निरन्तर अपनी लेखनी की कीमत चुकाते हुए नई पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्तिकरण का काम करते रहे।

आज के समय में भी कलम के इन सिपाहियों यानि की देश के चौथे स्थम्भधारी मीडिया वालों पर देश और समाज की दशा और दिशा के बारे में विचार कर उसके लिए बेहतर विकल्प तलाशने का काम है। ऐसे में पत्रकार अपनी ईमानदारी और कलम के जोर पर ही समाज के प्रति अपनी संवेदनाओं को अक्षरों के रुप में उकेरने का काम करता है। एक पत्रकार सबके सुख-दु:ख लिखता है लेकिन अपनी कहानी कभी नहीं कहता। वह राष्ट्र की संस्कृति और समाज बनाता है और इतिहास व समय के पैमाने को बदलता जाता हैं। ऐसे में ज्ञान की वंश परम्परा में साहित्यकार और पत्रकार को दो जुड़वां भाईयों की संज्ञा देना गलत ना होगा। जहां साहित्यकार शाश्वत की खोज करता है वहीं पत्रकार वर्तमान का अन्वेषण करता है। सूचना और प्रोद्योगिकी के युग से पहले भी वह स्वतंत्रता सेनानियों की जय बोलता था और आज भी वह पिछड़े और वंचितों से साथ ही जीता है। यही कारण है कि शब्द कभी मरता नहीं है, वह स्वयं ही अपना रास्ता बनाता है। साहित्यकार और पत्रकार की जुगलबंदी अनन्तकाल से आततायी और शोषण की व्यवस्था से लड़ती-मरती आई है तथा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक असहमतियों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की भूमिका अदा करती है।

स्मरणीय हो कि मानव समाज और समय के कुरूक्षेत्र में जिस शब्द और वाणी का आधार सत्य और अहिंसा रही है, वही कलम सामाजिक क्रांति के लिए परिवर्तन की जननी मानी गयी है। यानि कि उपनिवेशवाद से लेकर आज पूंजीवाद तक तानाशाही और लोकतंत्र में सच्ची कलम विपक्ष की आवाज बनकर ही चली है। दुनिया भर में दूसरे विश्वयुध्द के बाद जो क्रांतिकारी बदलाव आये हैं, उसमें आम जनता की आवाज को आगे बढ़ाने का काम साहित्यकारों तथा पत्रकारों ने ही किया है। वैसे मूल तौर पर पत्रकारिता का विकास तो उस युग से माना जायेगा जब यूरोप में ओद्योगिक क्रांति के बाद जब से छापाखने की परिकल्पना सामने आई। भारत के संदर्भ में देखें तो पत्रकारिता का उदय अंग्रेजों के भारत आने के पूर्व मुगलकाल में ही हो गया था। पहले प्रचार-प्रसार सीमित था लेकिन जैसे-जैसे तकनीक का और कागज का आविष्कार हुआ हमारे लोक जीवन में शब्द और वाणी के प्रभाव सभी दिशाओं में फैलने लगे। साहित्य की इन्हीं सीमाओं को तोड़ने का काम आज पत्रकारिता कर रही है तथा सूचना और प्रोद्योगिकी की इस २१वीं सदी में पत्रकारिता ने पारदर्शिता के नए रास्ते भी खोल दिए हैं।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रुप में प्रचलित वर्ष १८५७ की क्रांति में इस सूचना और समाचार की ताकत ने जबर्दस्त काम किया है। आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडीया ने देश और समाज में जो अग्रणी हस्तक्षेप और सवाल खड़े किये हैं, उसी का परिणाम है कि मीडिया अब विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बाद चौथे स्तम्भ अर्थात् खबरपालिका के रूप में स्थापित हो गया है। स्थितियों में बदलाव इस तरह से आया है कि पहले जहां सूचना का खुलासा करने वालों को भेदिया कहकर मार दिया जाता था, जहर का प्याला पिला दिया जाता था, हाथी के पांवो से कुचल दिया जाता था या फिर तोप के मुँह पर बांधकर उड़ा दिया जाता था। वही काम आज लोकतंत्र में राजनैतिक और आर्थिक गिरोहों तथा माफियाओं के द्वारा किया जाता है यानि कि उनके हितों के लिए बोलने और लिखने वाले को रास्ते का काँटा समझकर साफ किया जाता है।

समझने की बात यह है कि आज जब राजनीती का अपराधीकरण हो गया है, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जिस तरह सत्ता-व्यवस्था में घुस गया है तथा आर्थिक शक्तियां जिस तरह समानान्तर सरकार जैसी संगठित बन गई है तब से सच की खोज करने वाला पत्रकार इन समाज विरोधी ताकतो के निशाने पर आ गया है। आजादी के बाद और लोकतंत्र के विकास में जब पत्रकारिता और मीडिया एक सूचना उद्योग का रूप ले चुके है तब से शब्द और सूचना की सत्यता ही सबसे अधिक हिंसा और अपराध का शिकार हो रही है। आज भारत में ही विभिन्न भाषाओं की कोई ८० हजार पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं और करीब ७०० से अधिक टीवी चैनल रात-दिन चल रहे है। ऐसे में राजनैतिक और आर्थिक ताकतों की सारी कवायद मीडिया को अपने नियंत्रण में रखने की हो रही है। यह शक्तियां साम, दाम, दण्ड व भेद से मीडिया पर अपना आधिपत्य जमाने में लगी हैं। इस रास्ते में बाधा बन रहे पत्रकारों और लेखकों को अपनी राह का रोड़ा समझकर मारती-डराती रहती है।

शब्द और सत्य पर आक्रमण की यह कहानी १९९० के भूमंडलीकरण और खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक सक्रिय हो गई है। तानाशाही और अधिनायकवादी शासन व्यवस्थाओं में यह हमले अधिक है लेकिन भारत जैसे उदार लोकतंत्र में पत्रकार और मीडिया पर सबसे अधिक कातिलाना हमले राजनीती और आर्थिक जगत से जुड़े घराने ही करा रहे हैं। जहां-जहां मीडीया का प्रभाव समाज में बढ़ रहा है, वहां-वहां भेद खोलने वाले और खोजी पत्रकारिता के नायकों पर हमले अधिक हो रहे है। संक्षिप्त में एक मीडियाकर्मी और पत्रकार की हत्या समय और समाज के सत्य को दबाने के लिए ही है। पंजाब केसरी के लाला जगत नारायण तथा रमेशचंद्र की हत्या आंतक में की गई तो लेखिका तसलीमा नसरीन को सच लिखने के लिए बांग्लादेश से निर्वासित होना पड़ा। इसी तरह १९७५ के आपातकाल में मीडिया को भारी प्रतिबंध झेलने पड़े ताकि वह सरकार की गलत नीतियों पर जनता की बातों को आगे और प्रचारित-प्रसारित न करें।

यह सब प्रतिरोध और असहमति ही कलम के सिपाही को हिंसा का शिकार बनाती है और हरिशंकर परसाई को भी साम्प्रदायिकता के गुंडो से पिटवाती है। अभी आर्थिक राजधानी मुम्बई में समाचार पत्र मीड डे के पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या और पिछले दिनो पाकिस्तान के एक पत्रकार सलीम शहजात की मौत, इसी क्रम का एक उदाहरण है। इसी प्रकार आए दिन हत्या और हमलों की खबरें इस बात की याद दिलाती है कि हर लेखक और पत्रकार को सच लिखने की कीमत चुकानी ही पड़ती है, जो भूत से लेकर भविष्य में भी पूर्णत: सत्य है। ऐसे में कलम के सिपाहियों को जोखिम तो उठाने ही होंगे, तभी तो वह तथ्यों की परख और सच के अन्वेष्ण को सही दिशा दे सकेगा। ऐसे में वह समय दूर नहीं जब कमल के सिपाही सही मायनों में लोकतंत्र के सच्चे रक्षक कहलायेंगे। यह सत्य है कि शायर, सिहं और सपूत सदैव लीक से हटकर अपनी उपस्थिति को दर्ज कराते हैं। कलम का इतिहास भी वही लिखते हैं जो शहीद हो जाते हैं पर बिकते नहीं।

मां...


"अभी तक वो बचपने की यादें हैं बाकि,
और वो बचपने की बातें हैं बाकि।

कि जब मैंने बोला था मां पहली बार,
मां की आंखों में भरा था कितना प्यार।

पैदा हुआ था तो कुछ भी नहीं था मैं,
मां की वजह से ही हूं आज मैं।

लालच तो कुछ नहीं मेरी मां को मगर,
अच्छा हो दे दूं दिल तोहफे में अगर।

मां को छोड़ते हैं ऐसे कुछ लोग होते हैं,
फिर औरों के लिए वो हमेशा बोझ होते हैं।

कुछ लोगों के लिए मां को कभी छोड़ते नहीं,
चाहे कुछ भी हो जाये मुंह मोड़ते नहीं।

मां से हमेशा हमें सुख मिलता है,
फिर भी उसको हमसे दुख मिलता है।

काश मैं कुर्बान करुं सब उसकी सदा पर,
और वो मुझे प्यार करे मेरी इसी अदा पर।

मेरी मां से मुझे कोई जुदा न करे।
करुं प्यार किसी और से खुदा न करें।"

शनिवार, 17 मार्च 2012

मेरा जिक्र ना करना...

“दुख दर्द के मारों से मेरा जिक्र ना करना,
घर जाओ तो यारों से मेरा जिक्र ना करना।

वो रोक ना पायेंगे आंखों का समन्दर,
तुम राह-गुजारों से मेरा जिक्र ना करना।

फूलों सी यारी पर रहे हैं हम अक्सर हर्षिले,
देखों कभी कंटों से भी मेरा जिक्र ना करना।

शायद ये अंधेरे ही मुझे राह दिखायें,
अब चांद-सितारों से मेरा जिक्र ना करना।

वो मेरा कहानी को गलत रंग ना दे दें,
अफसाना निगाहों से मेरा जिक्र ना करना।

शायद वो मेरे हाल पर बेशाख्ता रो दे,
इस बार बहारों से मेरा जिक्र ना करना।

ले जायेंगे गहराईयों में तुमको भी बहा कर,
दरिया के किनारे से मेरा जिक्र ना करना।

वो शख्स मिले तो उसे हर बात बताना,
तुम सिर्फ इशारों से मेरा जिक्र ना करना।”

रविवार, 11 मार्च 2012

चलो आज खुद को सजा देते हैं...

“चलों आज खुद को सज़ा देते हैं,
हर ख्वाहिश दिल में दबा देते हैं।

खाये हैं बड़े धोखे राह-ए-उलफत में,
तोड़ कर दिल किसी का अब मजा लेते हैं।

मजबूर है दिल उनसे प्रीत निभाने को,
वो हैं हर मोड़ पर दगा देते हैं।

तो क्या हुआ जो मिली हमें सिर्फ तन्हाई,
उन्हें फिर भी खुश रहने की दुआ देते हैं।

गवांरा नहीं उन्हें कि देखें नजर भर,
आज अपनी रुह तक हम जला देते हैं।”

बहन...


"बहुत चंचल बड़ी खुशनुमा सी होती है बहन,
नाजुक सा दिल है रखती, मासूम सी होती है बहन,
बात-बात पर रोती हैं, लड़ती हैं, झगड़ती हैं,
पर झट से मान जाने वाली नादान परी होती है बहन...

है रहमतों से भरपूर, खुदा की ईनायत है बहन,
भाईयों की सूनी कलाईयों पर प्यार बनकर छाई है बहन,
घर भी महक उठता है जब मुस्कुराती है बहन,
जब डांट पर बड़ों की गुस्सा जाते हैं भाई,
तो दादी अम्मा की तरह समझाती और हंसाती है बहन....

होती है अजीब हालत जब छोड़ वो घर को जाती है,
खुशी उसकी विदाई की, पर आंख तो भर ही आती है,
लाख मनाये दिल के अपने, धर्म है उसका एक दिन जाना,
फिर भी उससे बिछड़ने का गम़, मन में घर कर जाती है।

दीवारों पर भले चढ़ा हो रंग और सजी हो रंगीन लतरियां,
पर सूना-सूना रहता घर-आंगन, जब विदा वो हो जाती है।
हंसी-ठिठोली करने वाली, जग से प्यारी अपनी बहन,
अन्त समय जाते-जाते कितना रुला जाती है बहन...।"

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

आंकड़ों की गवाही में भी बड़े खिलाड़ी हैं राहुल द्रविड़

नई दिल्ली, 09 मार्च (हि.स.)। कहते हैं कि आंकड़े कभी झूठ नहीं बोलते। आंकड़े किसी खिलाड़ी की सफलता और असफलता का पहला सबूत पेश करते हैं और इस लिहाज से अगर राहुल द्रविड़ के आंकड़ों पर गौर करें तो वह नि:संदेह बड़े खिलाड़ी प्रतीत होते हैं।

क्रिकेट के खेल में आंकड़ों की महत्ता का अंदाजी इसी से लगाया जाता है कि वह सीधे तौर पर खिलाड़ी की अपनी मेहनत को दर्शाता है। आंकड़ों की तरह द्रविड़ का व्यक्तित्व और उनका पेशेवर करियर इस बात का इशारा करता है कि वह भारतीय ही नहीं विश्व क्रिकेट के महानतम खिलाड़ियों में से एक हैं। ऐसे में द्रविड़ का संन्यास एक ऐसा खालीपन लेकर आया है, जिसमें परंपरागत क्रिकेट को चाहने वाले सबसे अधिक निराश होंगे।

विशुद्ध किताबी शॉट खेलने वाले द्रविड़ ने भारत के लिए 344 एकदिवसीय और 164 टेस्ट मैच खेले हैं। क्रिकेट के दोनों स्वरूपों में द्रविड़ के नाम 10 हजार से अधिक रन हैं। टेस्ट मैचों में द्रविड़ ने जहां सचिन तेंदुलकर के बाद सबसे अधिक 13288 रन बनाए हैं वहीं एकदिवसीय मैचों में उनके नाम 10889 रन हैं। भले ही रन तेजी से बनाने के लिए द्रविड़ को न जाना जाता हो पर यह भी सत्य है कि एकदिवसीय/टी-20 मैचों में भारतीय बल्लेबाजों में वह सबसे तेज पचासा लगाने वालों में तीसरा स्थान रखते हैं। उनसे आगे केवल युवराज सिंह (12 गेंद), अजीत आगरकर (20 गेंद) हैं, जबिक द्रविड़ ने आस्ट्रेलिया के खिलाफ 22 गेंदों में अपना पचासा जड़ा था।

फटाफट खेल से इतर पारम्परिक खेल टेस्ट मैच में द्रविड़ ने 36 शतक और 63 अर्धशतक लगाए हैं। शतकों की दौड़ में वह दूसरे सबसे सफल भारतीय बल्लेबाज हैं। सचिन तेंदुलकर ने उनसे अधिक 51 शतक लगाए हैं। टेस्ट मैचों में द्रविड़ के नाम सबसे अधिक 210 कैच लपकने का रिकार्ड है। एकदिवसीय मैचों में द्रविड़ के नाम 12 शतक और 83 अर्धशतक हैं। उन्होंने 196 कैच लपके हैं। विकेटकीपर के तौर पर द्रविड़ ने एकदिवसीय मैचों में 14 स्टम्प भी किए हैं। सचिन की तरह द्रविड़ ने भी एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय ट्वेंटी-20 मैच खेला है, जिसमें उनके नाम 31 रन दर्ज हैं।

वर्ष 1996 में लॉर्ड्स में 95 रनों की पारी के साथ अपने टेस्ट करियर का आगाज करने वाले द्रविड़ ने अपना अंतिम टेस्ट 24 जनवरी को एडिलेड में आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला था। क्रिकेट जगत में 'द वॉल' और 'मिस्टर भरोसेमंद' जैसे विशेषणों से नवाजे गए द्रविड़ भारत के अलावा स्कॉटलैंड, एशिया एकादश, आईसीसी विश्व एकादश, एमसीसी और इंडियन प्रीमियर लीग में रॉयल बैंगलोर चैलेंजर्स और राजस्थान रॉयल्स के लिए खेले हैं।

उल्लेखनीय है कि बेंगलुरू के सेंट जोसफ हाई स्कूल से निकलकर पहले कर्नाटक और फिर भारत के लिए खेलने वाले द्रविड़ ने अपने 20 साल के क्रिकेट करियर में सबका प्यार पाया और उस प्यार के तोहफे के तौर पर देश के लिए कई नायाब पारियां खेलीं। एक वक्त ऐसा था जब भारत के क्रिकेट प्रेमी यह मानते थे कि कोई विकेट पर टिके या न टिके द्रविड़ जरूर टिकेंगे और द्रविड़ ने इस विश्वास को कायम रखते हुए अपने लिए सबके दिलों में एक खास जगह बनाई।

हिन्दुस्थान समाचार/09.03.2012/आकाश।

बुधवार, 7 मार्च 2012

जिन्दगी...

आ जाये ऐसे में कोई, जहर ही दे दे मुझको,
कोई चाहत है ना कोई जरुरत है...

अब तो ख्वाहिशों ने भी साथ छोड़ दिया
कि जैसे उम्मीदों की ना कोई एहमियत है...

मौत की गोद मिल रही है अगर,
तो जागे रहने की क्या जरुरत है...

जिन्दगी को बहुत करीब से देखा है हमने,
जिन्दगी... बस एक मिट्टी की मूरत है...।

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

सरोगेसी मातृत्व की विश्व राजधानी को तौर पर बदनाम भारत

नई दिल्ली, 02 मार्च (हि.स.)। भारत सरोगेसी मातृत्व की विश्व राजधानी के तौर पर दुनिया भर में बदनाम हो रहा है। तेजी से प्रजनन पर्यटन का प्रमुख केन्द्र बनने के चलते इस बात की बहुत सख्त जरूरत है कि सरोगेट माताओं के अधिकारों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किया जाये। साथ ही इस संबंध में कानून बना कर देश भर में तेजी से पनपते ’असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी’ क्लीनिकों को नियम-कायदों के दायरे में लाया जाए। यह कहना है जैंडर विषय पर काम करने वाले अग्रणी स्वैच्छिक समूह सेंटर फॉर सोशल रिसर्च का।

शुक्रवार को सीएसआर ने ’सरोगेसी मातृत्व: नैतिक या व्यावसायिक’ शीर्षक से रिपोर्ट जारी की जो गुजरात में किए गए अध्ययन पर आधारित है। सीएसआर की निदेशक और जानी मानी महिला कार्यकर्ता डॉ. रंजना कुमारी ने सरकार से आग्रह किया कि एआरटी 2010 बिल को अविलम्ब पास किया जाए। इससे अपनी कोख को समर्पित करने वाली महिलाओं को सामाजिक, भावनात्मक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी, क्योंकि अपनी आजीविका को स्थिर रखने के लिए उन्हें गंभीर मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है।

रिपोर्ट के माध्यम से डा. रंजना ने स्पष्ट तौर पर परिभाषित कानून की आवश्यकता पर बल दिया, जो सरोगेसी के बारे में भारतीय सरकार के विचार को विस्तार में प्रकट करे, ताकि सरोगेट माताओं के होने वाले शोषण को रोका जा सके। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि सरोगेसी शिशु का नागरिक अधिकार भी अति महत्व का विषय है और इसमें पूछा गया है कि, भारतीय सरकार को सरोगेट शिशु को भारतीय नागरिकता देने के मामले में कदम उठाना होगा क्योंकि वह भारतीय (सरोगेट माता) कोख से भारत में जन्म लेता है। रिपोर्ट के मुताबिक, सरोगेट माता और बच्चे दोनों का स्वास्थ्य बीमा होना चाहिए ताकि वे एक सेहतमंद जीवन जी सकें।

रिपोर्ट मे यह भी खुलासा हुआ है कि पिछले कुछ सालों में किस प्रकार सरोगेसी बढ़ी है और क्यों भारत अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल पर्यटकों के लिए पसंदीदा स्थल बनता जा रहा है। सीएसआर में अनुसंधान की प्रमुख एवं इस रिपोर्ट की मुख्य लेखिका सुश्री मानसी मिश्रा ने कहा, ‘सस्ती चिकित्सा सुविधाएं, उन्नत प्रजनन तकनीकी जानकारी के साथ निर्धन सामाजिक-आर्थिक स्थितियां तथा भारत में नियामक कानूनों की कमी; ये सब मिलकर भारत को एक आकर्षक विकल्प बना देते हैं।’ यह रिपोर्ट सरोगेट माताओं के अधिकारों और देश भर में गैरकानूनी असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी (एआरटी) क्लीनिकों के मुद्दे उठाती है। इसमें सवाल उठाए गए हैं कि क्या सरोगेट मातृत्व को नियमित करना चाहिए और यदि हां, तो किस तरीके से। यदि नियमन के संबंध में किसी अनुबंध पर पहुंचा जा सके, तो भी प्रश्न बना रहता है कि क्या उन मापदंडों को कायम रखा जा सकेगा।

सरोगेसी के इंतजाम के विषय पर सीधे तौर पर कानून होना चाहिए जिसमें तीनों पार्टियां शामिल हों, यानीः सरोगेट मदर, माता-पिता और बच्चा। सरोगेट माताओं के लिए अधिकार-आधारित कानूनी ढांचे की जरूरत है क्योंकि आईसीएमआर के दिशानिर्देश काफी नहीं हैं। डॉ. कुमारी ने कहा। उनका कहना था कि असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी (रेगुलेशन) बिल को तुरंत पास करने की जरूरत है जिसका लक्ष्य सरोगेट माता और बच्चे के अधिकारों की रक्षा करना है। सरोगेसी व्यवस्था से जो कारोबार हो रहा है उसका अनुमानित आंकड़ा 500 मीलियन डॉलर है और सरोगेसी के मामले तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। इस संबंध में सटीक भारतीय आंकड़ें ज्ञात नहीं हैं लेकिन जांच से पता लगा है कि पिछले कुछ सालों में यह काम दोगुना हो चुका है।

गोरी, शिक्षित और युवा औरतों की मांग लगातार बढ़ रही है जो विदेशी दंपतियों के लिए सरोगेट माता का काम कर सकें। अक्सर दंपतियों को अपनी बारी के लिए आठ महीनों से लेकर एक साल तक प्रतीक्षा करनी होती है। आम तौर पर छोटे शहरों की महिलाओं को इस आउटसोर्सिंग प्रेग्नेंसी के लिए चुना जाता है। आणंद, सूरत, जामनगर, भोपाल व इंदौर ऐसे शहर हैं जहां भारतीय तथा विदेशी दंपति बच्चे की चाहत में यात्राएं करते हैं।

सरोगेसी की औसत लागत 10,000 से 30,000 डॉलर के बीच है जिसमें शामिल होते हैं : सरोगेट माता का पारिश्रमिक, आईवीएफ का खर्च, भोजन व उपभोज्य वस्तुएं, कानूनी व डॉक्टर की फीस, प्रसव व्यय एवं प्रसव पूर्व देखभाल का खर्चा। अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल पर्यटकों के लिए यह लागत बहुत ही किफायती है जिस वजह से वे अधिक से अधिक संख्या में भारत आ रहे हैं। किंतु जो महिला वास्तव में अपनी कोख समर्पित करती है वह न्यायपूर्ण मुआवजे़ से वंचित रह जाती है। बिचौलिए, मैडिकल क्लीनिक और वकील अधिकांश पैसा ले जाते हैं- इस रिपोर्ट के मुताबिक सरोगेसी के लिए जो 12 से 15 लाख रुपए दिए जाते हैं उसमें से सरोगेट माता को मात्र 1-2 प्रतिशत ही मिलता है।

गौरतलब है कि यह रिपोर्ट कई परेशान कर देने वाले तथ्यों को भी उद्घाटित करती है। उदाहरण के लिए, कई बार पति इस बात पर ऐतराज नहीं करता की उसकी पत्नी सरोगेसी के लिए जाए लेकिन जब बच्चे के जन्म के बाद औरत घर लौटती है तो उसका पति व बच्चे उससे दूरी बना लेते हैं। इन मामलों में क्लीनिकों की भूमिका भी संदेहास्पद है। सरोगेसी अनुबंध सरोगेट माता (उसके पति सहित) कमीशनिंग माता-पिता और फर्टिलिटी चिकित्सक के बीच होता है, लेकिन क्लीनिक इस विषय से अपने को दूर रखते हैं ताकि उन्हें किसी कानूनी झंझट में न पड़ना पड़े। इस बारे में कोई तयशुदा नियम नहीं है कि सरोगेट माता को कितना मुआवज़ा दिया जाएगा, यह रकम क्लीनिक मनमाने ढंग से तय करते हैं। आम चलन यह है कि सरोगेट शिशु के कमीशनिंग माता-पिता कुल जितना धन देते हैं उसका 1-2 प्रतिशत ही सरोगेट माता को दिया जाता है। इस रिपोर्ट ने खुलासा किया।

हिन्दुस्थान समाचार/02.03.2012/आकाश।

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