बुधवार, 28 दिसंबर 2011

कमी-सी है...

हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है,
हँसती आँखों में भी नमी-सी है।

दिन भी चुप चाप सर झुकाये था,
रात की नब्ज़ भी थमी-सी है।

किसको समझायें किसकी बात नहीं,
ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है।

ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई,
गर्द इन पलकों पे जमी-सी है।

कह गए हम ये किससे दिल की बात,
शहर में एक सनसनी-सी है।

हसरतें राख हो गईं लेकिन,
आग अब भी कहीं दबी-सी है।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी के 88वें जन्मदिवस पर विशेष


ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े तथा धूल और धुएँ की बस्ती में खेले एक साधारण अध्यापक पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी के पुत्र श्री अटलबिहारी वाजपेयी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बने। अटल जी का जन्म 25 दिसंबर 1925 को हुआ। अपनी प्रतिभा, नेतृत्व क्षमता और लोकप्रियता के कारण वह चार दशकों से भी अधिक समय से भारतीय संसद के सांसद रहे। उनमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की संकल्पशक्ति, भगवान श्रीकृष्ण की राजनीतिक कुशलता और आचार्य चाणक्य की निश्चयात्मिका बुद्धि के आधार पर ही उन्होंने जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी को खड़ा करने का काम किया। जिसे लेकर आगे बढते हुए ही उनकी पार्टी सत्ता के सिंहासन पर काबिज हो सकी।

अपने जीवन का क्षण-क्षण और शरीर का कण-कण राष्ट्रसेवा के यज्ञ में अर्पित करने वाले अटल बिहारी देश और समाज के लिए ही तत्पर रहे। इनका उद्घोऔष, ‘हम जिएँगे तो देश के लिए, मरेंगे तो देश के‍लिए। इस पावन धरती का कंकर-कंकर शंकर है, बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। भारत के लिए हँसते-हँसते प्राण न्योछावर करने में गौरव और गर्व का अनुभव करूँगा।' भारत को लेकर उनकी दृष्टि यह हे कि ‘ऐसा भारत जो भूख और डर से, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो’। अटल जी एक ऐसे नेता है जिन्होने जो देश-हित में था वही किया। देश के प्रति संजीदगी के आलम ऐसा रहा कि वह आजीवन अविवाहित रहे। अटल जी एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं सिद्ध हिन्दी कवि भी हैं।

अटल सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे हैं और जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी। वह पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने गठबंधन सरकार को न केवल स्थायित्व दिया अपितु सफलता पूर्वक से संचालित भी किया। अटल ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था। इन सबसे अलग उनके व्यक्तित्व का सबसे बडा गुण है कि वे सीधे सच्चे व सरल इन्सान हैं। उनके जीवन में किसी भी मोड पर कभी कोई व्यक्तिगत विरोधाभास नहीं दिखा। परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की संभावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये। सन् १९९८ में राजस्थान के पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया जिसे अमेरिका की सी०आई०ए० को भनक तक नहीं लगने दी। प्रधानमंत्री अटलजी ने पोखरण में अणु-परीक्षण करके संसार को भारत की शक्ति का एहसास करा दिया।

कारगिल युद्ध में पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने वाले तथा उसे पराजित करने वाले भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए अटल जी अग्रिम चौकी तक गए थे। वहां उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था, 'वीर जवानो! हमें आपकी वीरता पर गर्व है। आप भारत माता के सच्चे सपूत हैं। पूरा देश आपके साथ है। हर भारतीय आपका आभारी है।' अटल जी के भाषणों का ऐसा जादू है कि लोग उन्हें सुनते ही रहना चाहते हैं। उनके व्याख्यानों की प्रशंसा संसद में उनके विरोधी भी करते रहे हैं तथा उनके अकाट्यउ तर्कों का सभी ओर लोहा भी माना है। उनकी सबसे बड़ा खासियत यह है कि उनका अपनी वाणी पर कसा नियंत्रण रहा और सदैव विवेक व संयम का ध्यान रखते हुए अपनी बात रखी।

राजनीतिक जीवन
वह भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक हैं और सन् १९६८ से १९७३ तक वह उसके अध्यक्ष भी रह चुके हैं। सन् १९५५ में उन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, परन्तु सफलता नहीं मिली लेकिन हिम्मत नहीं हारी और सन् १९५७ में बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुँच कर ही दम लिया। सन् १९५७ से १९७७ जनता पार्टी की स्थापना तक वे बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। सन् १९६८ से ७३ तक वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर आसीन रहे। मोरारजी देसाई की सरकार में वह सन् १९७७ से १९७९ तक विदेश मंत्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनाई।

१९८० में जनता पार्टी से असंतुष्ट होकर इन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। ६ अप्रैल, १९८० में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वाजपेयी जी को सौंपा गया। दो बार राज्यसभा के लिये भी निर्वाचित हुए। लोकतन्त्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् १९९७ में प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। १९ अप्रैल, १९९८ को पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में १३ दलों की गठबंधन सरकार ने पाँच वर्षों में देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए।

सन् २००४ में कार्यकाल पूरा होने से पहले भयंकर गर्मी में सम्पन्न कराये गये लोकसभा चुनावों में भा०ज०पा० के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन (एन०डी०ए०) ने वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और भारत उदय (अंग्रेजी में इण्डिया शाइनिंग) का नारा दिया। इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी स्थिति में वामपंथी दलों के समर्थन से कांग्रेस ने भारत की केन्द्रीय सरकार पर कायम होने में सफलता प्राप्त की और भा०ज०पा० विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। सम्प्रति वे राजनीति से सन्यास ले चुके हैं।

जन संघ और भाजपा
1951 में वो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे। अपनी कुशल वक्तृत्व शैली से राजनीति के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने रंग जमा दिया। वैसे लखनऊ में एक लोकसभा उप चुनाव में वो हार गए थे। 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वो दूसरी लोकसभा में पहुंचे। अगले पाँच दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी।

1968 से 1973 तक वो भारतीय जन संघ के अध्यक्ष रहे। विपक्षी पार्टियों के अपने दूसरे साथियों की तरह उन्हें भी आपातकाल के दौरान जेल भेजा गया। 1977 में जनता पार्टी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया। इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया और वो इसे अपने जीवन का अब तक का सबसे सुखद क्षण बताते हैं। 1980 में वो बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे। 1980 से 1986 तक वो बीजेपी के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे।

सांसद से प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी अब तक नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं। दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक। बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही। ख़ासतौर से 1984 में जब वो ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों पराजित हो गए थे। इस बीच, 1962 से 1967 और 1986 में वो राज्यसभा के सदस्य भी रहे।

16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद 1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1998 के आमचुनावों में सहयोगी पार्टियों के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने। लेकिन एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए।

1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया। गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली।

कैदी कविराय के रूप में अटल
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी हैं। ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वह ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें ऋंगार रस के प्रेम प्रसून न चढ़ाकर ‘यक शहन्शाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम हसीनों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक’ की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के कारीगरों के शोषण पर ही गया।

वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता आद्योपान्त प्रकट होती ही रही है। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेकों आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पायी। उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ मृत्यु या हत्या, अमर बलिदान (लोक सभा में अटल जी वक्तव्यों का संग्रह), कैदी कविराय की कुण्डलियाँ, संसद में तीन दशक, अमर आग है, कुछ लेख: कुछ भाषण, सेक्युलर वाद, राजनीति की रपटीली राहें, बिन्दु बिन्दु विचार, इत्यादि हैं।

“मां तू होती तो…”

नींद बहुत आती है पढ़ते-पढ़ते है,
मां होती तो कह देता, एक प्याली चाय बना दो ।

थक गया जली रोटी खा-खा कर,
मां होती तो कह देता पराठे वना दो ।

भींग गई आंसुओं से आंखे मेरी,
मां होती तो कह देता आंचल दे दो ।

रोज वही कोशिश खुश होने की,
मां होती तो मुस्कुरा लेता ।

देर रात हो जाती है घर पहुँचते-पहुँचते,
मां होती तो वक्त से घर लौट जाता ।

सुना है कई दिनों से वो भी नहीं मुस्कुराई,
ये मजबूरियां न होती तो घर चला जाता ।

बहुत दूर निकल आया हुँ घर से अपने,
जो तेरे सपनों की परवाह न होती...
... बस चला आता ।।

रविवार, 18 दिसंबर 2011

आरक्षण की बैसाखी नहीं अवसर की समानता का अधिकार दो

देश में जब-जब चुनाव करीब आते हैं, चुनावी वायदों और घोषणओं की बयार बहने लगती हैं। अगले साल पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। प्रत्येक राज्य में सियासी पार्टियां अपने-अपने प्रदेशों के हिसाब से जीत पक्की करने के लिए जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रिय विकास का सहारा लेकर जनता के पास जाती हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है यानि यों कहें कि यूपी कई देशों से भी बड़ा है। यूपी की आबादी करीब 20 करोड़ है। देश की आबादी के 16.49 फीसदी लोग इसी राज्य में रहते हैं। देश में सर्वाधिक अनुसूचित जाति के लोग भी इसी राज्य में हैं और मुस्लिमों की संख्या भी बहुतायत में है।

प्रदेश की मुखिया मायावती ने राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव विधान सभा में पारित करा कर अपने इस फैसले को विकास का कारगर फॉर्मूला बताया है। ऐसे में कांग्रेस भी कहां पीछे रहने वाली थी। कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद ने एटा में मुस्लिमों आरक्षण का मुद्दा उठा कर सियासी चाल चल दी। हालांकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी मुस्लिमों को आरक्षण देने की बात बहुत पहले भी उठाती रही है, फिर बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी मुस्लिम आरक्षण की वकालत की है। चुनाव पास आते ही सभी राजनीतिक पार्टियां वोटरों को आकर्षित करने के लिए कई हथकंडे अपनाते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही नेता सारे वादे भूल जाते हैं।

अब सवाल ये उठता है कि क्या आरक्षण से पिछड़ों का विकास संभव है। देश को आजाद हुए 64 साल बीत गए। पिछड़ी जातियां और दलितों के उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था लंबे समय से चली आ रही है। इन आरक्षण से गरीबों और पिछड़ी जातियों का कितना विकास हुआ। उसके जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ। परिणाम में कोई खास फर्क नहीं दिखता है। आज भी दलितों और पिछड़ी जातियों के लोगों की आर्थिक हालत बहुत खराब है। खासकर गांवों में जहां रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं। आरक्षण सिर्फ सरकारी नौकरियों में है, जिनकी संख्या बहुत कम है। 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में केंद्रीय नौकरियां और राज्य की नौकरियों को मिला दिया जाए तो अधिक से अधिक ढ़ाई करोड़ लोग सरकारी नौकरियां कर रहे होंगे। जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति तथा पिछड़ी जातियों का कुल हिस्सा करीब 54 फीसदी है। क्या 5-6 करोड़ लोगों को सरकारी नौकरी दे देने मात्र से पिछड़ी जातियों का पिछड़ापन दूर हो जाएगा, कभी नहीं।

1990 में उदारीकरण के बाद देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां आईं, जिससे रोजगार के नए अवसर भी खुले। कौशल में निपुण युवाओं को इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरियां मिली। इस दौरान देसी प्राइवेट कंपनियों में भी योग्यता के हिसाब से युवाओं को नौकरियां मिलीं। देश में प्राइवेट नौकरियों की बहार आ गईं। सैलरी (वेतन) भी अच्छी खासी दी जाने लगी। सरकारी नौकरियों से कई गुना ज्यादा निजी क्षेत्र में नौकरियां पैदा हुईं। इन निजी कंपनियों में आरक्षण की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार एक ओर जहां निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। वहीं, आरक्षण का दायरा भी बढ़ा रही है। हाल ही में केंद्र सरकार ने 50 से ज्यादा नई जातियों को पिछड़ी जातियों की श्रेणी में शामिल किया है। अब अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की श्रेणी में मुस्लिमों को शामिल करने की बात चल रही है ताकि मुस्लिमों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके। अगर धीर-धीरे सभी जातियों का आरक्षण दे दिया जाय तो आरक्षण का औचित्य की खत्म हो जाएगा।

आम जनता को सरकार की इस चाल को समझना पड़ेगा। एक ओर सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं। वहीं, आरक्षण का झुनझुना लोगों को बांटने की बात दिन-रात हो रही है। यह बहुत बड़ा छलावा है, इसे गंभीरता से समझना होगा। अगर सरकार सही मायने में दलितों, पिछड़ी जातियों और पिछड़े मुसलमानों की तरक्की चाहती है तो उसे अवसर की समानता देनी होगी। देश में हर व्यक्ति के लिए समान अवसर मुहैया करना होगा। गरीबों और अमीरों के बच्चों को समान शिक्षा व्यवस्था देनी होगी। जैसा स्कूल नई दिल्ली में संभ्रांत परिवार के बच्चों के लिए होता है वैसी स्कूली सुविधाएं गरीबों के बच्चों के लिए जैसलमेर, लद्दाख, किशनगंज, जंगलमहल, गंजाम में भी होनी चाहिए। मतलब कश्मीर से कन्या कुमारी और अरुणाचल प्रदेश से राजस्थान तक प्रत्येक स्कूल और कॉलेज में पढ़ने लिखने की समान व्यवस्था होनी चाहिए। ताकि देश के किसी भी कोने में सभी जाति और धर्म के बच्चों को आगे बढ़ने का अवसर मिल सके।

इतना ही नहीं इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट के निजी कॉलेजों को बंद कर दिया जाना चाहिए। अगर सरकार देश के पिछड़े लोगों के बारे में सही मायने में सोचती है तो उसे निजी शिक्षण संस्थानों को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में काफी मोटी फीस वसूलकर एडमिशन लिया जाता है। जिससे दलित और पिछड़ी जातियों के बच्चे पैसे के अभाव में सही शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं। सरकार आरक्षण नहीं देकर देश के तमाम आर्थिक रुप से पिछड़ों के लिए अगड़ों से समान अवसर उपलब्ध करा कर उसमें आज के जमाने के अनुसार कौशल विकसित करें तो भारत निश्चित तौर पर चीन का आर्थिक रुप से मुकाबला कर सकता है।

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

क्रिकेट खेल है जंग नहीं

-सर डॉन ब्रैडमैन व्याख्यान में छा गये द्रविड़।

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर सर डान ब्रैडमैन से बड़ा दूसरा खिलाड़ी नहीं हुआ, वर्ष 2000 से ऑस्ट्रेलिया में उनकी स्मृति में ब्रैडमैन व्याख्यान का आयोजन किया जाता रहा है। इस आयोजन में क्रिकेट व अन्य क्षेत्रों की विभूतियां सर डान ब्रैडमैन व क्रिकेट के विषय पर अपने विचार व्यक्त करती हैं।

इस वर्ष के ब्रैडमैन व्याख्यान में पहली बार किसी विदेशी क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में भारत के राहुल द्रविड़ को इस संबोधन का सम्मान दिया गया।14 दिसंबर 2011 को ऑस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में आयोजित इस व्याख्यान में राहुल द्रविड़ ने क्रिकेट के अलावा विश्व इतिहास, समाज, संस्कृति व मानव शास्त्र में अपनी बारीक समझ का प्रमाण भी दिया। राष्ट्रीय युद्ध स्मारक प्रांगण जैसे आयोजन स्थल की गरिमा के अनुरूप युद्ध की गंभीरता को समझने वाले राहुल द्रविड़ ने किसी क्रिकेट मैच के वर्णन के लिए युद्ध, जंग या महासंग्राम जैसे वजनी शब्दों के उपयोग को निर्थक बताया।

इतिहास के अच्छे जानकार की तरह द्रविड़ ने भारत-ऑस्ट्रेलिया के सैन्य सहयोग का भी उल्लेख किया, जो 20वीं सदी के दोनों विश्व युद्धों के दौरान भारत व ऑस्ट्रेलिया ने बनाये थे। द्रविड़ ने स्वाधीनता पूर्व भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सर डान ब्रैडमैन के क्रिकेटीय करिश्मे से भारतीयों के भावनात्मक जुड़ाव का जिक्र किया और यह भी कहा कि उस समय सारे भारतीय सर डान ब्रैडमैन को एक प्रकार से अपना प्रतिनिधि ही समझते थे। भारतीय क्रिकेट के एक बेहतरीन ब्रांड अंबेसडर राहुल द्रविड़ ने पिछले 25 सालों में भारत में क्रिकेट प्रतिभा के व्यापक फ़ैलाव और छोटे-छोटे कस्बो-शहरों से नये खिलाड़ियों के टीम में आने के अनेक उदाहरण दिये। द्रविड़ ने भारत के क्रिकेट खिलाड़ियों के सिर चढ़े व अति धनाढ्य होने को भी अतिशयोक्ति बताया।

द्रविड़ ने सबसे ज्यादा तारीफ़ भारतीय क्रिकेट प्रशंसकों को दी, द्रविड़ के अनुसार भारत के क्रिकेट प्रशंसक अपनी टीम व क्रिकेट खेल को बेहद प्यार देते हैं। हर भारतीय क्रिकेटर अपने कैरियर के दौरान यह समझ जाता है कि भले ही क्षणिक आवेश में कुछ लोग अप्रिय स्थिति पैदा कर दें, किंतु अधिकतर भारतीय प्रशंसकों की भावनाएं टीम के साथ जुड़ी हुई हैं। भारतीय क्रिकेटर के लिए यह खेल रोजगार का साधन मात्र नहीं है बल्कि यह अपने जीवन का सदुपयोग करने का अवसर है, ऐसा अवसर कितने लोगों को मिल ही पाता है? राहुल द्रविड़ ने भारतीय खिलाड़ियों के मानवीय पक्ष को जिस रूप में जिया है ठीक उसी रूप में उसे प्रस्तुत भी किया। अखिल विश्व में अपने पंगु नेतृत्व व भ्रष्ट संचालन के लिए बदनाम बीसीसीआइ को भी कूटनीतिज्ञ द्रविड़ ने सराहा और भारत में क्रिकेट के प्रसार में इस बोर्ड के प्रयासों का जिक्र किया। इस संबोधन के दौरान राहुल द्रविड़ ने किसी बेहद कुशल रणनीतिकार की भांति ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के सुरक्षित भविष्य के लिए एक नयी कार्यनीति का प्रतिपादन भी किया।

राहुल द्रविड़ ने क्रिकेट अधिकारियों व खिलाड़ियों को क्रिकेट प्रशंसकों के प्रति अपनी जवाबदेही की ओर सजग होने को कहा और हर अंतरराष्ट्रीय दौरे में जबरन ठूंसे हए अनेक एक दिवसीय व 20- ट्वेंटी मैचों की संख्या घटाने को कहा। टेस्ट मैच को क्रिकेट की सर्वोच्च प्रतिस्पर्धा बताने वाले द्रविड़ ने खुले तौर पर कहा कि गैर जरूरी एक दिवसीय या 20- ट्वेंटी मैचों के चलते ही मैदान में दर्शकों की संख्या बेहद कम हो गयी है। टेस्ट में और दर्शकों को लाने के लिए द्रविड़ ने रात-दिन के टेस्ट खेलने की भी वकालत की। राहुल ने क्रिकेट की स्थिति बनाये रखने के लिए टेस्ट पर सबसे ज्यादा ध्यान देने को कहा, एक दिवसीय मैचों को वर्ल्ड कप या चैंपियन ट्राफ़ी जैसी प्रतियोगिताओं के लिए उपयुक्त बताया जबकि 20-ट्वेंटी को राष्ट्रीय स्तर पर सीमित रखने को कहा। राहुल के अनुसार क्रिकेट के तीनों प्रारूप साथ-साथ रह सकते है किन्तु जैसे अभी चल रहे है वैसे नहीं।

राहुल द्रविड़ के भाषण का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा खेल में बेईमानी और मैच फ़िक्सिं ग को रोकने के बारे में था। द्रविड़ ने खिलाड़ियों से और कड़े परीक्षणों व नियमों को स्वीकार करने को कहा। राहुल द्रविड़ ने इस खेल की शुचिता के लिए क्रिकेट खिलाड़ियों से कुछ असुविधाओं व अपनी निजी जानकारी प्रदान करने को तैयार रहे को भी कहा। द्रविड़ ने क्रिकेट की आय बढ़ाने के के नये तरीकों की आवश्यकता स्वीकार की किन्तु साथ ही क्रिकेट की गौरवशाली परंपरा को बनाये रखने की अपील भी की। राहुल द्रविड़ का व्याख्यान ठीक उनकी बल्लेबाजी की तरह शास्त्रीय शैली में दिया गया स्पष्ट भाषण था। ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय समाचार माध्यमों में राहुल द्रविड़ के इस संबोधन को ब्रेडमैन व्याख्यान में अब तक दिये गये सभी भाषणों में से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। क्रिकेट मैदान के ‘श्रीमान भरोसेमंद’ द्रविड़ ने अपने संबोधन से यह साबित किया कि इस ‘भारतीय दीवार’ की बौद्धिक योग्यता और सैद्धांतिक मान्यताओं की नींव कितनी गहरी और कितनी मजबूत है।

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