मंगलवार, 30 अगस्त 2011

आज का युवा....

आज फुर्सत कहाँ जवानी को जो देखे जमी की तरफ,

उनकी हर एक शाम तो बस रंगीन मिजाज चाहिए,


जिधर भी नजरे उठाकर देखा टिमटिमाते जुगुनू ही नजर आये,

खुद मिटा कर भी जले एक ऐसा आफताब चाहिए,


सिर्फ हलचल पैदा करने की मेरी नियत नहीं रहती,

उठकर जो गिरे मुझे तो वो सैलाब चाहिए,


अपनी हर एक साँस को इस वतन के नाम कर चूका कब का,

मुझको दरकार खून की है, अफ़सोस तुम्हे अब भी किताब चाहिए !”

खूबसूरत...

""ख्वाब खूबसूरत है और है खयालात खूबसूरत,

लिखूं जो तेरा नाम तो लगे हर बात खूबसूरत।


टकरा के पलकों की कोर से जो अश्क बह चले,

देखा जरा गौर से तो लगे है बरसात खूबसूरत।


रात, नींद, करवटें, अंगड़ाइयों के वो दौर सब,

इश्क में तो हुए जाते हैं, अब हालात खूबसूरत।।""

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

न अपनी फिकर, न औरों की पूछ

चुप खड़े हैं पत्थरों के सामने,

क्या यही हैं दरपनों के मायने,

लोग पूछते नहीं...

क्या पता ठिकाना तुम्हारा,

बस कहते हैं चलता जा,

मंजिल मिल जायेगी सामने।।


भूख है या यूं ही बिलख रहा है कोई,

क्या पड़ी किसी को पूछे रूककर,

बस मुस्कुराहटों की महफिल उन्हें भाती,

खुशियों का सौदा करने का है वो आदती।।


शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

कुछ रोज जी के देखते हैं...

"हौसले ज़िन्दगी के देखते हैं,
चलिए कुछ रोज जी के देखते हैं।

नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है,
और ख्वाब अगली सदी के देखते हैं।

बारिशों से तो प्यास बुझती नहीं,
आईये फिर ज़हर पी के देखते हैं...!"

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

एक शहर की हकीक़त...

"सुना था दिल पे राज करते हैं, दिल्ली के बाशिंदे...
मगर सच्चाईयों में उम्मीदों का अक्स टूट चूका है !

फरेबी हैं यहाँ सभी , कोई सच्चा नहीं है,
जबाँ मीठी मगर दिल से कोई अच्छा नहीं है !

किताबें और तेजी खा गई बचपन शहर के ,
उम्रे बचपन में भी कोई बच्चा यहाँ, बच्चा नहीं है !

मिर्जा के शहर में कभी, शब्दों पर भी दिल धड़कता था,
वहां अब शब्द केवल जग-हसाई के काम आता है!

महक भी खो रही है अपने जमीं की, यहाँ की पुरवाई में,
हैं शीशे के सभी लोग, कोई मकाँ भी कच्चा नहीं है!

कंक्रीट का है जंगल, संगमरमर की बूते हैं,
इन पत्थरों की भीड़ में इंसान भी घुटे हैं...!"

रविवार, 14 अगस्त 2011

तन-मन की तकरार..

"शहर में तेरे जीने का सामान कहाँ,
मैखाने हैं पर आँखों के जाम कहाँ!

कुछ और सबब होगा उसकी बेचैनी का,
रखता है सर मेरे वो इल्जाम कहाँ!

समझाएं कैसे दिल के आईने को,
नाम हुआ है मेरा, मै बदनाम कहाँ!

करते हो हर बार शिकायत क्यों बेजा,
नहीं हो मीरा जब तुम, मै श्याम कहाँ!

ढूंढ़ रहा है खुद को ही जाने कब से,
बनारस में अब रहता है 'आकाश' कहाँ..!"

शनिवार, 13 अगस्त 2011

‘‘कुत्तों को नहीं हजम होता घी....’’

कहते हैं न कि अगर किसी को उसकी औकात से ज्यादा खुशी मिल जाती है तो वह उसे संभाल नहीं पाता, कुछ ऐसा ही हाल इंग्लैंड क्रिकेट टीम का है। टेस्ट क्रिकेट की नंबर एक टीम भारत को लगातार दो टेस्ट मैच में पटखनी देने के बाद नंबर एक बनने की कगार पर खडी इंग्लिश टीम इस बात को नहीं पचा पा रही है और भारतीय खिलाडियों के बारे अनाब-शनाब बयानबाजी कर ठेठ हिंदी की एक कहावत ‘कुत्तों को नहीं हजम होता घी...’ को चरितार्थ कर रही है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि इंग्लैंड टीम अपने पूरे रौ में है और उसके खिलाडी अपने जीवन के सबसे शबाब वाले फार्म के स्तर से गुजर रहे हैं। ऐसे में जीत और शानदार प्रदर्शन के लिए उनकी प्रशंसा लाजमी है लेकिन अपनी जीत को दूसरों की हार से जोडना तथा सामने वाली टीम पर छींटाकशी करना सही नहीं। वैसे भी क्रिकेट को जैन्टलमैंस गेम कहा जाता है और बीते सालों तक यह परिपाटी कायम भी रही। जब कपिल देव, सुनील गावस्कर, एलेन बार्डर, माइकल होल्डिंग और स्टीव वॉ जैसे कई खिलाडी अपने समय में खेल के प्रति मैदान पर काफी उग्र रहे लेकिन उनका खेल और व्यक्तिगत पहलू कभी एक-दूसरे के आडे नहीं आये। जितनी उग्रता खेल में दिखी, उतनी ही सरलता उनके संवादों में थी। वह देश के लिए खेलते हुए भी खेल को ज्यादा तवज्जों देते थे जबकि आज क्रिकेट का स्वरूप बदल गया है और जैन्टलमैंस गेम अब अपशब्दों के शब्दावली के नये आयाम गढते हुए छींटाकशी के मैसलेनियस स्तर तक आ गया है। जहां किसी भी टीम और खिलाडी पर कोई भी किसी भी प्रकार के नजरिये के साथ बयानबाजी कर देता है, और यदि किसी प्रकार से उसके खिलाफ कार्रवाई का डर बनाया जाता है तो वह झट से शर्मिंदगी की हदों को पार का माफी मांग लेता हैŸ। जिसे आज कल सोशल मैनर कह कर संबोधित किया जाने का चलन है।

इंग्लिश टीम जो अपनी ही जमीन पर भारतीय शेरों को लगातार खेल के उम्दा प्रदर्शन से धमकाये हुए है कि वह उसके नंबर एक की बादशाहत पर कब्जा कर लेगी, जो अब शायद साकार होने की ओर है। बर्मिंघम में खेले जा रहे तीसरे टेस्ट मैच में भी इंग्लैंड की पकड मजबूत है और अब शायद इस बात का इंतजार है कि भारत अपनी हार को कितना लम्बा खींच सकता है। इस सबके बीच भले ही इंग्लैंड प्रदर्शन से आंकडों को आधार बना नंबर एक बन जाये लेकिन इंग्लिश क्रिकेट टीम का व्यवहार और वहां की मीडिया का रवैया बादशाहत के लायक नहीं है। नंबर एक भारत भी रहा है या कहिए अभी है और पिछले दस माह से अपने बादशाहत को कायम भी रखे हुए हैŸ लेकिन कभी भारत को अपने नंबर एक होने पर दंभ नहीं रहा। जबकि बादशाहत की ओर अग्रसर इंग्लिश टीम पर पहले से ही अव्वल होने का सुरूर इंग्लिश खिलािडयों और वहां की मीडिया पर छाने पर लगा है तभी तो वह भारतीय टीम की हार और खिलाडियों के लचर प्रदर्शन को लतीफों और अट्ठहास के रूप में भूना रहे हैं। एक ओर जहां इंग्लिश मीडिया ने भारतीय टीम को बूढे बार्डर काली’ प्रजाती के कुत्ते से तुलना की, वहीं द्रविड पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि अब समझ में आया कि उन्हें वाल (दीवार) क्यों कहा जाता है क्योंकि गेंद उनसे टकराकर वापस आ जाती है। इसके अलावा सहवाग पर बॉल टेंपरिंग का आरोप भी लगाया है।

भारतीय टीम और खिलाडियों पर किये गये कटाक्ष से यह तो स्पष्ट है कि इंग्लिश टीम जीत और नंबर एक के दर्जे से करीबी को पचा नहीं पा रही है। इसी लिए क्रिकेट जनक देश अब तक की अपनी नाकामियों और हार को खुन्नस के तौर पर बाहर निकाल रही है। आखिर इंग्लिश खिलाडी और वहां की मीडिया भी बेचारी क्या करे, पहली बार तो ऐसा मौका आया है कि इंग्लैंड विशेष तौर पर जाना जायेगाŸ। क्रिकेट का जन्मदाता होने के बावजूद वह न तो विश्वविजेता बन सका है और न ही आज से पहले कभी खेल में उसका वर्चस्व रहा है। बीते साल दो साल में ही वह निखरा है। ऐसे में छोटे बच्चें की तरह जो लगातार परीक्षा में फेल होने के बाद जब पास होता है तो सोचता है उससे बेहतर कोई नहीं और गर्व में फूल जाता हैŸ। कुछ ऐसा ही हाल इंग्लिश मैन का भी है जीत मिल रही है, नंबर एक बनने जा रहे है तो हार और मात के कढवे घूंट को पीने के बाद मिल रही देशी घी में लिपटी सौधी जीत की खुशी को वह पचा पाने नहीं पा रहे हैं। अपने इस व्यवहार से उन्होंने दर्शा दिया है कि वह तालाब के मेंढक की तरह हैं तो थोडी सी जीत की बारिश को ही सारा समंदर मान लेते हैं और खुशी में टर्राने लग पडते हैं।

इन सबके बावजूद इंग्लिश टीम और मीडिया को ध्यान रखना चाहिए उनकी ये तल्ख टिप्पणियां किस टीम और किन खिलाडियों पर आ रही है, जो अपने खेल और खेल भावना के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैंŸ। वैसे भी राहुल द्रविड और विरेंद्र सहवाग को गोरी चमडी के इन सूअरों के उटपटांग बयानबाजी से कोई फर्क नहीं पडेगा। जो खिलाडी क्रिकेट के दो प्रमुख फार्मेट में साढे दस हजार से ज्यादा रनों के पहाड पर खडा हो वह भला जमीनी खोह स्तर वाली सोच रखने वाले इंग्लिश मैन की परवाह क्यों करेगा। राहुल द्रविड को पता है कि टीम में उनकी क्या उपयोगिता है और किस लिए उन्हें ‘द वाल’ और ‘श्रीमान भरोसेमंद’ कहा जाता है। वैसे भी द्रविड ने अपने करियर में कभी कुत्तों के भौकने की परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें पता है उनके हर काम के साथ जहां कुछ लोग आपकों पसंद करते हैं तो उसी क्रम में कुछ आलोचक भी जन्म लेते हैंŸ, जिनका उद्देश्य मात्र लोगों की आलोचना करना ही होता है।

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

जोश और उम्मीद....

खिलखिला रही है नसों में, सौ दर्द की अठखेलियाँ,

आजादी के सावन में भी गुलाम मन की होलियाँ,

कैसे भला कह दे की हम, करते नहीं परवाह तनिक,

जब देश में बम फोड़ आतंकी मना रहे दिवालियाँ।


आज भी जब देखता हूँ खून को बिखरे हुए,

अपने ही भाई बंधुओं को कराह में सिमटे हुए,

दिलो-दिमाग में छाये कुंध से तड़प उठता हूँ,

कि या तो सब रहे खुश या दुनिया ही मिटा दूं।


फैंली हो शांति दूर तक, दिलों में अमन हों,

यह देश हमारा फिर से एकता का चमन हों,

रंजो-गम के मेले में खुशियों के ठेले हों,

ना बोझ हो किसी पर, न महफिल में अकेले हों।


दिन आयेगा ऐसा भी कि खुशियां ही खिलेंगी,

तकरार की आंच पर पककर मोहब्बत ही मिलेंगी,

तीखी जुबान, कढवे विचार से भी शहद फूटेगा,

जब आदमी का गुरूर आदमी के प्यार पर टूटेगा।

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

कुछ जज्बात...


"दिल-ओ-नज़र से कुछ देर भी जुदा रखूं,

ये मेरे बस मैं नहीं की तुझे खफा रखूं !

नहीं है कुछ भी मेरे ज़ेहन में सिवा इसके,

मैं तेरी याद भुला दूँ तो याद क्या रखूं !!"


"टुकड़ों में जी रहे हैं, जीने की चाह में हम,

महंगा पड़ा है शायद ये ज़िन्दगी का शौक..

सादगी है ये की दिल कहता है सबको अपना,

मुझको मिटा न डाले कहीं ये दोस्ती का शौक..."


"जो आजमाते हैं उन्हें भी ये पता चले,

हम साथ में लिये हुए किस की दुआ चले।

ख्वाहिश है या खलिश है या कोई खुमार है,

तू न दिखा तो हम जुस्तजू-ए-तन्हाई चले..।।"


"सब बलाएँ रोज मेरी अपने सर लेती रही

माँ ही थी जो सह के सब कुछ भी दुआ देती रही

उसके दम पर आ अंधेरों आज भी रोशन हूँ मैं

मेरी बुझती लौ को माँ हर दिन हवा देती रही........"


"आवारा मिजाजी से निकलने नहीं देता ,

मैं चाहूँ बदलना वो बदलने नहीं देता ,

ना जाने कैसा उसकी दोस्ती में है नशा ,

एक उम्र हुई मुझको संभलने नहीं देता...."


"खताए उसकी आज उसको बता आये हम,

आँखों के मोती को आँखों से गिरा आये हम,

कहते ही क्या उस इश्क के व्यापारी को भला,

दिखा के आईना नजरो से गिरा आये हम...."


"हम से बिछड़ कर बेनाम हो जाओगे,

सौदागरों के हाथो नीलाम हो जाओगे,

हमें अच्छा नहीं लगता तेरा हर एक से मिलना,

हर किसी से मिलोगे तो आम हो जाओगे..! "


"कुछ फासले सिर्फ आँखों से होते हैं,

दिल के फासले तो बातों से होते हैं,

कोई लाख भुलाने कि कोशिश करे पर,

कुछ रिश्ते ख़त्म सिर्फ साँसों से होते हैं..!"


"क़सम उन मस्त आँखों कि,

मै वो लबरेज सागर हूँ,

जो मस्ती में चल निकलूँ,

तो सारी दुनियां को ले डूबूं.."

पूंजी प्रवाह के आगे नतमस्तक 'पत्रकारिता'

लोकतंत्र में पत्रकारिता ही एक ऐसा पेशा है जिसे सामाजिक सरोकारों का सच्चा पहरूआ कह सकते हैं क्योंकि पत्रकारिता का लक्ष्य सच का अन्वेषण है। सामाजिक शुचिता के लिए सच का अन्वेषण जरूरी है। सच भी ऐसा कि जो समाज में बेहतरी की बयार को निर्विरोध बहाये, जिसके तले हर मनुष्य खुद को संतुष्ट समझे। पत्रकारिता का उद्भव ही मदांध व्यवस्था पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से हुआ था लेकिन आज की वर्तमान स्थिति में यह बातें बेमानी ही नजर आ रही है। आज केवल खुद को आगे पहॅुचाने और लोगों की भीड से अलग दिखाने की चाह में जो भी अनर्गल चीज छापी या परोसी जा सकती हैं सभी को किया जा रहा है। अगर आज की पत्रकारिता को मिशन का चश्मा उतार कर देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि मीडिया समाचारों के स्थान पर सस्ती लोकप्रियता के लिए चटपटी खबरों को रखने के लिए तत्पर है।


एक दौर हुआ करता था जब पत्रकार निष्पक्ष सेवक और पत्रकारिता श्रद्धा के तौर पर देखी जाती थी। जो समाज के बेसहाराओं का सहारा बन उनकी आवाज को कुम्भकर्णी नींद में सोए हुक्मरानों तक पहुॅचाने का माद्दा रखती थी। उस दौर के पत्रकार की कल्पना दीन-ईमान के ताकत पर सत्तामद में चूर प्रतिष्ठानों के चूल्हें हिलाने वाले क्रांतिकारी फकीर के रूप में होती थी। यह बातें अब बीते दौर की कहानी बन कर रह गयी हैं। आज की पत्रकारिता के सरोकार बदल गये है और वह भौतिकवादी समाज में चेरी की भूमिका में तब्दील हो गयी है। जिसका काम लोगों के स्वाद को और मजेदार बनाते हुए उनके मन को तरावट पहुॅचाना है। देश के सामाजिक चरित्र के अर्थ प्रधान होने का प्रभाव मीडिया पर भी पडा है और आज मीडिया उसी अर्थ लोलुप्सा की ओर अग्रसर है, या यू कहिए की द्रूत गति से भाग रही है। इस दौड में पत्रकारिता ने अपने आयामों को इस कदर बदला है कि अब समझ ही नहीं आता की मीडिया सच की खबरें बनाती है या फिर खबरों में सच का छलावा भरती है, लेकिन जो भी हो यह किसी भी दशा में निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं है।


पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है सूचना, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करना। किसी समाचार पत्र को जीवित रखने के लिए उसमें प्राण होना आवश्यक है। पत्र का प्राण होता है समाचार, लेकिन बढते बाजारवाद और आपसी प्रतिस्पद्र्धा के कारण विज्ञापन इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि पत्रकारिता का वास्तविक स्वरूप ही बदल गया हैŸ। राष्ट्रीय स्तर के समाचारों के लिए सुरक्षित पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर भी अद्र्धनग्न चित्र विज्ञापनों के साथ आ गये हैं। समाचार पत्रों का सम्पादकीय जो समाज के बौद्धिक वर्ग को उद्वेलित करता था जिनसे जनमानस भी प्रभावित होता था। उसका प्रयोग आज अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाने में उपयोग किया जा रहा है, जिसने पत्रकारिता के गिरते स्तर और उसकी दिशा को लेकर अनेक सवाल खडे कर दिये हैं। वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रभाव ने समाचार पत्रों को भी सत्य के नाम पर इतनी तेजी से दौडा दिया है कि समाचार संवाहक को स्वयं ही समाचार सर्जक बना दिया है। फिल्म अभिनेत्रियों की शादी और रोमांस के सम्मुख आम महिलाओं की मौलिक समस्याएँ, उनके रोजगार, स्वास्थ्य उनके ऊपर होने वाले अत्याचार का समाचार स्थान नहीं पा पाता। यदि होता भी है तो बेमन, केवल दिखाने के लिए।


पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो समझ आता है कि भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब १९२० के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारत में पत्रकारिता ने इसमें प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। १८२७ में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था, ‘मेरा सिर्फ यही उद्देश्य है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभवों को बढ़ाए और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।ङ्क वर्तमान में राजा राममोहन राय जी की यह बातें केवल शब्द मात्र हैं जिनपर चलने का किसी भी पत्रकार का कोई मन नहीं है आखिर उसे भी समाज में अपनी ऊचाईयों को छूना है। आज के समय मीडिया अर्थात् पत्रकारिता से जुडे लोगों का लक्ष्य सामाजिक सरोकार न होकर आर्थिक सरोकार हो गया है। वैसे भी व्यवसायिक दौर में सामाजिक सरोकार की बातें अपने आप ही बेमानी हो जाती हैं। सरोकार के नाम पर अगर कहीं किसी कोने में पत्रकारिता के अंतर्गत कुछ हो भी रहा है तो वो भी केवल पत्रकारिता के पेशे की रश्म अदायगी भर है।


पत्रकारिता के पतित पावनी कार्यनिष्ठा से सत्य, सरोकार और निष्पक्षता के विलुप्त होने के पीछे वैश्वीकरण की भूमिका भी कम नहीं है। सभी समाचार पत्र अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय समाचारों के बीच झूलने लगे हैं। एक ओर विदेशी पत्रकारिता की नकल पर आज अधिकांश पत्र सनसनी तथा उत्तेजना पैदा करने वाले समाचारों को सचित्र छापने की दौड में जुटे हैं। इन्टरनेट से संकलित समाचार कच्चे माल के रूप में जहाँ इन्हें सहजता से मिल जा रहा है,वहीं प्रौद्योगिकी का उपयोग कर अनेक संस्करण निकालकर अपने पत्रों को क्षेत्रीय रूप दे रहे हैं, जिसके कारण पत्रकारिता का सार्वभौमिक स्वर ही विलीन होने लगा है। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं व टेलीविजन चैनल जो गे डेङ्क यानी कि समलैंगिकता दिवस मनाते हैं, संस्कृति की रक्षा की बातों को मोरल पोलिसिंग कहकर बदनाम करने की कोशिशें करते हैं, भारतीय परंपराओं और जीवन मूल्यों का मजाक उड़ाते हैं, खुलकर अश्लीलता, वासनायुक्त जीवन और अमर्यादित आचरणों का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि यह सब वे पब्लिक डिमांडङ्क यानी कि जनता की मांग पर कर रहे हैं। परन्तु वास्तविकता यही है कि बाजारवाद के लाभ से लाभान्वित होने के प्रयास में अन्य पर दोषारोपण करके स्वयं को मुक्त नहीं किया जा सकता।


आज यदि महात्मा गांधी, राजा राममोहन राय, विष्णु हरि पराङकर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे स्वयं को पत्रकार कहलाने की हिम्मत करते? क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं? क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृद्ध विरासत को संभालने की क्षमता है? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की जरूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा। इसके अलावा पत्रकारिता को सबसे बडा खतरा गलत दिशा में बढा कदम है। जिसके लिए बाजारवादी आकर्षण से मुक्त होकर पुनः पुरानी परम्परा का अनुसरण करना ही होगा, तभी पत्रकारिता की विश्वसनीयता ब‹‹ढेगी। मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को पीत पत्रकारिता एवं सत्ताभोगी नेताओं के प्रशस्ति गान के बजाय जनमानस के दुःख दर्दो का निवारण, समाज एवं राष्ट्र के उन्नयन के लिए निःस्वार्थ भाव से कत्र्तवय का पालन करना होगा, तभी वह लोकतंत्री मे चौथे स्तंभ का अस्तित्व बनाये रखने में सफह हो सकेंगे।


-आकाश कुमार राय

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

कुछ पंक्तियाँ... जो दिल को छू गयी ....

"बस एक ही तमन्ना रखता हूँ मैं अपने दिल में...
मुहब्बत से मिलो चाहे मुझे बर्बाद ही कर दो ..."


"दांत भी टूटी , खाट भी टूटा , उनसे प्यार निभायी में ..

उनके शर्म ने ली जान हमारी , भर गर्मी ओढ़ रजाई में ..."



"जब करो इज़हार इश्क का, जेब-ओ-दिल पर हाथ रख लेना,

मान गयी तो खर्च बढेगा, ना मानी तो कुछ टूटेगा ..."


"मौला यूँ ही रखना मेरे सर पे अपना हाथ
माँ भी मेरे साथ हो मेरे बाबु जी भी साथ....."


"ना करना हौसले की बात तू मुझसे महोब्बत में
अक्ल की हम नहीं सुनते जुनूँ से काम करते हैं... "


"सोचता हूँ बिना शर्त के आये मौत तो हाथ मिला लूं ,
कि उब्ब गया हूँ ज़िन्दगी से समझौता करते-करते...."


"मेरी आवारगी में कुछ दखल तुम्हारा भी है,
तुम्हारी याद आती है तो हमे घर अच्छा नहीं लगता.."


"कहता हैं दर्दे जिगर को लफ्जों से मत तोलना
आँख से गिरने की ख्वाइश कुछ तो तेरे खूं में हो......."


"आँखों के आईने में किस किस को छुपाता वो
हज़ार थे हम जैसे ख्वाबों में आने वाले......"


"ये सोच के सूरज को मुटठी में भर लिया
बादल के साये देर तक मेरे साथ रहेंगे .."


"देख ले आ मौत आकर आज फिर हारेगी तू
माँ मिलेगी साथ मेरे, छोड़ कर भागेगी तू...."

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