बुधवार, 28 दिसंबर 2011

कमी-सी है...

हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है,
हँसती आँखों में भी नमी-सी है।

दिन भी चुप चाप सर झुकाये था,
रात की नब्ज़ भी थमी-सी है।

किसको समझायें किसकी बात नहीं,
ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है।

ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई,
गर्द इन पलकों पे जमी-सी है।

कह गए हम ये किससे दिल की बात,
शहर में एक सनसनी-सी है।

हसरतें राख हो गईं लेकिन,
आग अब भी कहीं दबी-सी है।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी के 88वें जन्मदिवस पर विशेष


ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े तथा धूल और धुएँ की बस्ती में खेले एक साधारण अध्यापक पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी के पुत्र श्री अटलबिहारी वाजपेयी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बने। अटल जी का जन्म 25 दिसंबर 1925 को हुआ। अपनी प्रतिभा, नेतृत्व क्षमता और लोकप्रियता के कारण वह चार दशकों से भी अधिक समय से भारतीय संसद के सांसद रहे। उनमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की संकल्पशक्ति, भगवान श्रीकृष्ण की राजनीतिक कुशलता और आचार्य चाणक्य की निश्चयात्मिका बुद्धि के आधार पर ही उन्होंने जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी को खड़ा करने का काम किया। जिसे लेकर आगे बढते हुए ही उनकी पार्टी सत्ता के सिंहासन पर काबिज हो सकी।

अपने जीवन का क्षण-क्षण और शरीर का कण-कण राष्ट्रसेवा के यज्ञ में अर्पित करने वाले अटल बिहारी देश और समाज के लिए ही तत्पर रहे। इनका उद्घोऔष, ‘हम जिएँगे तो देश के लिए, मरेंगे तो देश के‍लिए। इस पावन धरती का कंकर-कंकर शंकर है, बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। भारत के लिए हँसते-हँसते प्राण न्योछावर करने में गौरव और गर्व का अनुभव करूँगा।' भारत को लेकर उनकी दृष्टि यह हे कि ‘ऐसा भारत जो भूख और डर से, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो’। अटल जी एक ऐसे नेता है जिन्होने जो देश-हित में था वही किया। देश के प्रति संजीदगी के आलम ऐसा रहा कि वह आजीवन अविवाहित रहे। अटल जी एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं सिद्ध हिन्दी कवि भी हैं।

अटल सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे हैं और जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी। वह पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने गठबंधन सरकार को न केवल स्थायित्व दिया अपितु सफलता पूर्वक से संचालित भी किया। अटल ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था। इन सबसे अलग उनके व्यक्तित्व का सबसे बडा गुण है कि वे सीधे सच्चे व सरल इन्सान हैं। उनके जीवन में किसी भी मोड पर कभी कोई व्यक्तिगत विरोधाभास नहीं दिखा। परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की संभावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये। सन् १९९८ में राजस्थान के पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया जिसे अमेरिका की सी०आई०ए० को भनक तक नहीं लगने दी। प्रधानमंत्री अटलजी ने पोखरण में अणु-परीक्षण करके संसार को भारत की शक्ति का एहसास करा दिया।

कारगिल युद्ध में पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने वाले तथा उसे पराजित करने वाले भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए अटल जी अग्रिम चौकी तक गए थे। वहां उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था, 'वीर जवानो! हमें आपकी वीरता पर गर्व है। आप भारत माता के सच्चे सपूत हैं। पूरा देश आपके साथ है। हर भारतीय आपका आभारी है।' अटल जी के भाषणों का ऐसा जादू है कि लोग उन्हें सुनते ही रहना चाहते हैं। उनके व्याख्यानों की प्रशंसा संसद में उनके विरोधी भी करते रहे हैं तथा उनके अकाट्यउ तर्कों का सभी ओर लोहा भी माना है। उनकी सबसे बड़ा खासियत यह है कि उनका अपनी वाणी पर कसा नियंत्रण रहा और सदैव विवेक व संयम का ध्यान रखते हुए अपनी बात रखी।

राजनीतिक जीवन
वह भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक हैं और सन् १९६८ से १९७३ तक वह उसके अध्यक्ष भी रह चुके हैं। सन् १९५५ में उन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, परन्तु सफलता नहीं मिली लेकिन हिम्मत नहीं हारी और सन् १९५७ में बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुँच कर ही दम लिया। सन् १९५७ से १९७७ जनता पार्टी की स्थापना तक वे बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। सन् १९६८ से ७३ तक वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर आसीन रहे। मोरारजी देसाई की सरकार में वह सन् १९७७ से १९७९ तक विदेश मंत्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनाई।

१९८० में जनता पार्टी से असंतुष्ट होकर इन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। ६ अप्रैल, १९८० में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वाजपेयी जी को सौंपा गया। दो बार राज्यसभा के लिये भी निर्वाचित हुए। लोकतन्त्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् १९९७ में प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। १९ अप्रैल, १९९८ को पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में १३ दलों की गठबंधन सरकार ने पाँच वर्षों में देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए।

सन् २००४ में कार्यकाल पूरा होने से पहले भयंकर गर्मी में सम्पन्न कराये गये लोकसभा चुनावों में भा०ज०पा० के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन (एन०डी०ए०) ने वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और भारत उदय (अंग्रेजी में इण्डिया शाइनिंग) का नारा दिया। इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी स्थिति में वामपंथी दलों के समर्थन से कांग्रेस ने भारत की केन्द्रीय सरकार पर कायम होने में सफलता प्राप्त की और भा०ज०पा० विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। सम्प्रति वे राजनीति से सन्यास ले चुके हैं।

जन संघ और भाजपा
1951 में वो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे। अपनी कुशल वक्तृत्व शैली से राजनीति के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने रंग जमा दिया। वैसे लखनऊ में एक लोकसभा उप चुनाव में वो हार गए थे। 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वो दूसरी लोकसभा में पहुंचे। अगले पाँच दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी।

1968 से 1973 तक वो भारतीय जन संघ के अध्यक्ष रहे। विपक्षी पार्टियों के अपने दूसरे साथियों की तरह उन्हें भी आपातकाल के दौरान जेल भेजा गया। 1977 में जनता पार्टी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया। इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया और वो इसे अपने जीवन का अब तक का सबसे सुखद क्षण बताते हैं। 1980 में वो बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे। 1980 से 1986 तक वो बीजेपी के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे।

सांसद से प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी अब तक नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं। दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक। बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही। ख़ासतौर से 1984 में जब वो ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों पराजित हो गए थे। इस बीच, 1962 से 1967 और 1986 में वो राज्यसभा के सदस्य भी रहे।

16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद 1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1998 के आमचुनावों में सहयोगी पार्टियों के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने। लेकिन एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए।

1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया। गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली।

कैदी कविराय के रूप में अटल
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी हैं। ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वह ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें ऋंगार रस के प्रेम प्रसून न चढ़ाकर ‘यक शहन्शाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम हसीनों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक’ की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के कारीगरों के शोषण पर ही गया।

वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता आद्योपान्त प्रकट होती ही रही है। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेकों आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पायी। उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ मृत्यु या हत्या, अमर बलिदान (लोक सभा में अटल जी वक्तव्यों का संग्रह), कैदी कविराय की कुण्डलियाँ, संसद में तीन दशक, अमर आग है, कुछ लेख: कुछ भाषण, सेक्युलर वाद, राजनीति की रपटीली राहें, बिन्दु बिन्दु विचार, इत्यादि हैं।

“मां तू होती तो…”

नींद बहुत आती है पढ़ते-पढ़ते है,
मां होती तो कह देता, एक प्याली चाय बना दो ।

थक गया जली रोटी खा-खा कर,
मां होती तो कह देता पराठे वना दो ।

भींग गई आंसुओं से आंखे मेरी,
मां होती तो कह देता आंचल दे दो ।

रोज वही कोशिश खुश होने की,
मां होती तो मुस्कुरा लेता ।

देर रात हो जाती है घर पहुँचते-पहुँचते,
मां होती तो वक्त से घर लौट जाता ।

सुना है कई दिनों से वो भी नहीं मुस्कुराई,
ये मजबूरियां न होती तो घर चला जाता ।

बहुत दूर निकल आया हुँ घर से अपने,
जो तेरे सपनों की परवाह न होती...
... बस चला आता ।।

रविवार, 18 दिसंबर 2011

आरक्षण की बैसाखी नहीं अवसर की समानता का अधिकार दो

देश में जब-जब चुनाव करीब आते हैं, चुनावी वायदों और घोषणओं की बयार बहने लगती हैं। अगले साल पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। प्रत्येक राज्य में सियासी पार्टियां अपने-अपने प्रदेशों के हिसाब से जीत पक्की करने के लिए जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रिय विकास का सहारा लेकर जनता के पास जाती हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है यानि यों कहें कि यूपी कई देशों से भी बड़ा है। यूपी की आबादी करीब 20 करोड़ है। देश की आबादी के 16.49 फीसदी लोग इसी राज्य में रहते हैं। देश में सर्वाधिक अनुसूचित जाति के लोग भी इसी राज्य में हैं और मुस्लिमों की संख्या भी बहुतायत में है।

प्रदेश की मुखिया मायावती ने राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव विधान सभा में पारित करा कर अपने इस फैसले को विकास का कारगर फॉर्मूला बताया है। ऐसे में कांग्रेस भी कहां पीछे रहने वाली थी। कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद ने एटा में मुस्लिमों आरक्षण का मुद्दा उठा कर सियासी चाल चल दी। हालांकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी मुस्लिमों को आरक्षण देने की बात बहुत पहले भी उठाती रही है, फिर बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी मुस्लिम आरक्षण की वकालत की है। चुनाव पास आते ही सभी राजनीतिक पार्टियां वोटरों को आकर्षित करने के लिए कई हथकंडे अपनाते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही नेता सारे वादे भूल जाते हैं।

अब सवाल ये उठता है कि क्या आरक्षण से पिछड़ों का विकास संभव है। देश को आजाद हुए 64 साल बीत गए। पिछड़ी जातियां और दलितों के उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था लंबे समय से चली आ रही है। इन आरक्षण से गरीबों और पिछड़ी जातियों का कितना विकास हुआ। उसके जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ। परिणाम में कोई खास फर्क नहीं दिखता है। आज भी दलितों और पिछड़ी जातियों के लोगों की आर्थिक हालत बहुत खराब है। खासकर गांवों में जहां रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं। आरक्षण सिर्फ सरकारी नौकरियों में है, जिनकी संख्या बहुत कम है। 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में केंद्रीय नौकरियां और राज्य की नौकरियों को मिला दिया जाए तो अधिक से अधिक ढ़ाई करोड़ लोग सरकारी नौकरियां कर रहे होंगे। जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति तथा पिछड़ी जातियों का कुल हिस्सा करीब 54 फीसदी है। क्या 5-6 करोड़ लोगों को सरकारी नौकरी दे देने मात्र से पिछड़ी जातियों का पिछड़ापन दूर हो जाएगा, कभी नहीं।

1990 में उदारीकरण के बाद देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां आईं, जिससे रोजगार के नए अवसर भी खुले। कौशल में निपुण युवाओं को इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरियां मिली। इस दौरान देसी प्राइवेट कंपनियों में भी योग्यता के हिसाब से युवाओं को नौकरियां मिलीं। देश में प्राइवेट नौकरियों की बहार आ गईं। सैलरी (वेतन) भी अच्छी खासी दी जाने लगी। सरकारी नौकरियों से कई गुना ज्यादा निजी क्षेत्र में नौकरियां पैदा हुईं। इन निजी कंपनियों में आरक्षण की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार एक ओर जहां निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। वहीं, आरक्षण का दायरा भी बढ़ा रही है। हाल ही में केंद्र सरकार ने 50 से ज्यादा नई जातियों को पिछड़ी जातियों की श्रेणी में शामिल किया है। अब अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की श्रेणी में मुस्लिमों को शामिल करने की बात चल रही है ताकि मुस्लिमों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके। अगर धीर-धीरे सभी जातियों का आरक्षण दे दिया जाय तो आरक्षण का औचित्य की खत्म हो जाएगा।

आम जनता को सरकार की इस चाल को समझना पड़ेगा। एक ओर सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं। वहीं, आरक्षण का झुनझुना लोगों को बांटने की बात दिन-रात हो रही है। यह बहुत बड़ा छलावा है, इसे गंभीरता से समझना होगा। अगर सरकार सही मायने में दलितों, पिछड़ी जातियों और पिछड़े मुसलमानों की तरक्की चाहती है तो उसे अवसर की समानता देनी होगी। देश में हर व्यक्ति के लिए समान अवसर मुहैया करना होगा। गरीबों और अमीरों के बच्चों को समान शिक्षा व्यवस्था देनी होगी। जैसा स्कूल नई दिल्ली में संभ्रांत परिवार के बच्चों के लिए होता है वैसी स्कूली सुविधाएं गरीबों के बच्चों के लिए जैसलमेर, लद्दाख, किशनगंज, जंगलमहल, गंजाम में भी होनी चाहिए। मतलब कश्मीर से कन्या कुमारी और अरुणाचल प्रदेश से राजस्थान तक प्रत्येक स्कूल और कॉलेज में पढ़ने लिखने की समान व्यवस्था होनी चाहिए। ताकि देश के किसी भी कोने में सभी जाति और धर्म के बच्चों को आगे बढ़ने का अवसर मिल सके।

इतना ही नहीं इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट के निजी कॉलेजों को बंद कर दिया जाना चाहिए। अगर सरकार देश के पिछड़े लोगों के बारे में सही मायने में सोचती है तो उसे निजी शिक्षण संस्थानों को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में काफी मोटी फीस वसूलकर एडमिशन लिया जाता है। जिससे दलित और पिछड़ी जातियों के बच्चे पैसे के अभाव में सही शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं। सरकार आरक्षण नहीं देकर देश के तमाम आर्थिक रुप से पिछड़ों के लिए अगड़ों से समान अवसर उपलब्ध करा कर उसमें आज के जमाने के अनुसार कौशल विकसित करें तो भारत निश्चित तौर पर चीन का आर्थिक रुप से मुकाबला कर सकता है।

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

क्रिकेट खेल है जंग नहीं

-सर डॉन ब्रैडमैन व्याख्यान में छा गये द्रविड़।

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर सर डान ब्रैडमैन से बड़ा दूसरा खिलाड़ी नहीं हुआ, वर्ष 2000 से ऑस्ट्रेलिया में उनकी स्मृति में ब्रैडमैन व्याख्यान का आयोजन किया जाता रहा है। इस आयोजन में क्रिकेट व अन्य क्षेत्रों की विभूतियां सर डान ब्रैडमैन व क्रिकेट के विषय पर अपने विचार व्यक्त करती हैं।

इस वर्ष के ब्रैडमैन व्याख्यान में पहली बार किसी विदेशी क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में भारत के राहुल द्रविड़ को इस संबोधन का सम्मान दिया गया।14 दिसंबर 2011 को ऑस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में आयोजित इस व्याख्यान में राहुल द्रविड़ ने क्रिकेट के अलावा विश्व इतिहास, समाज, संस्कृति व मानव शास्त्र में अपनी बारीक समझ का प्रमाण भी दिया। राष्ट्रीय युद्ध स्मारक प्रांगण जैसे आयोजन स्थल की गरिमा के अनुरूप युद्ध की गंभीरता को समझने वाले राहुल द्रविड़ ने किसी क्रिकेट मैच के वर्णन के लिए युद्ध, जंग या महासंग्राम जैसे वजनी शब्दों के उपयोग को निर्थक बताया।

इतिहास के अच्छे जानकार की तरह द्रविड़ ने भारत-ऑस्ट्रेलिया के सैन्य सहयोग का भी उल्लेख किया, जो 20वीं सदी के दोनों विश्व युद्धों के दौरान भारत व ऑस्ट्रेलिया ने बनाये थे। द्रविड़ ने स्वाधीनता पूर्व भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सर डान ब्रैडमैन के क्रिकेटीय करिश्मे से भारतीयों के भावनात्मक जुड़ाव का जिक्र किया और यह भी कहा कि उस समय सारे भारतीय सर डान ब्रैडमैन को एक प्रकार से अपना प्रतिनिधि ही समझते थे। भारतीय क्रिकेट के एक बेहतरीन ब्रांड अंबेसडर राहुल द्रविड़ ने पिछले 25 सालों में भारत में क्रिकेट प्रतिभा के व्यापक फ़ैलाव और छोटे-छोटे कस्बो-शहरों से नये खिलाड़ियों के टीम में आने के अनेक उदाहरण दिये। द्रविड़ ने भारत के क्रिकेट खिलाड़ियों के सिर चढ़े व अति धनाढ्य होने को भी अतिशयोक्ति बताया।

द्रविड़ ने सबसे ज्यादा तारीफ़ भारतीय क्रिकेट प्रशंसकों को दी, द्रविड़ के अनुसार भारत के क्रिकेट प्रशंसक अपनी टीम व क्रिकेट खेल को बेहद प्यार देते हैं। हर भारतीय क्रिकेटर अपने कैरियर के दौरान यह समझ जाता है कि भले ही क्षणिक आवेश में कुछ लोग अप्रिय स्थिति पैदा कर दें, किंतु अधिकतर भारतीय प्रशंसकों की भावनाएं टीम के साथ जुड़ी हुई हैं। भारतीय क्रिकेटर के लिए यह खेल रोजगार का साधन मात्र नहीं है बल्कि यह अपने जीवन का सदुपयोग करने का अवसर है, ऐसा अवसर कितने लोगों को मिल ही पाता है? राहुल द्रविड़ ने भारतीय खिलाड़ियों के मानवीय पक्ष को जिस रूप में जिया है ठीक उसी रूप में उसे प्रस्तुत भी किया। अखिल विश्व में अपने पंगु नेतृत्व व भ्रष्ट संचालन के लिए बदनाम बीसीसीआइ को भी कूटनीतिज्ञ द्रविड़ ने सराहा और भारत में क्रिकेट के प्रसार में इस बोर्ड के प्रयासों का जिक्र किया। इस संबोधन के दौरान राहुल द्रविड़ ने किसी बेहद कुशल रणनीतिकार की भांति ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के सुरक्षित भविष्य के लिए एक नयी कार्यनीति का प्रतिपादन भी किया।

राहुल द्रविड़ ने क्रिकेट अधिकारियों व खिलाड़ियों को क्रिकेट प्रशंसकों के प्रति अपनी जवाबदेही की ओर सजग होने को कहा और हर अंतरराष्ट्रीय दौरे में जबरन ठूंसे हए अनेक एक दिवसीय व 20- ट्वेंटी मैचों की संख्या घटाने को कहा। टेस्ट मैच को क्रिकेट की सर्वोच्च प्रतिस्पर्धा बताने वाले द्रविड़ ने खुले तौर पर कहा कि गैर जरूरी एक दिवसीय या 20- ट्वेंटी मैचों के चलते ही मैदान में दर्शकों की संख्या बेहद कम हो गयी है। टेस्ट में और दर्शकों को लाने के लिए द्रविड़ ने रात-दिन के टेस्ट खेलने की भी वकालत की। राहुल ने क्रिकेट की स्थिति बनाये रखने के लिए टेस्ट पर सबसे ज्यादा ध्यान देने को कहा, एक दिवसीय मैचों को वर्ल्ड कप या चैंपियन ट्राफ़ी जैसी प्रतियोगिताओं के लिए उपयुक्त बताया जबकि 20-ट्वेंटी को राष्ट्रीय स्तर पर सीमित रखने को कहा। राहुल के अनुसार क्रिकेट के तीनों प्रारूप साथ-साथ रह सकते है किन्तु जैसे अभी चल रहे है वैसे नहीं।

राहुल द्रविड़ के भाषण का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा खेल में बेईमानी और मैच फ़िक्सिं ग को रोकने के बारे में था। द्रविड़ ने खिलाड़ियों से और कड़े परीक्षणों व नियमों को स्वीकार करने को कहा। राहुल द्रविड़ ने इस खेल की शुचिता के लिए क्रिकेट खिलाड़ियों से कुछ असुविधाओं व अपनी निजी जानकारी प्रदान करने को तैयार रहे को भी कहा। द्रविड़ ने क्रिकेट की आय बढ़ाने के के नये तरीकों की आवश्यकता स्वीकार की किन्तु साथ ही क्रिकेट की गौरवशाली परंपरा को बनाये रखने की अपील भी की। राहुल द्रविड़ का व्याख्यान ठीक उनकी बल्लेबाजी की तरह शास्त्रीय शैली में दिया गया स्पष्ट भाषण था। ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय समाचार माध्यमों में राहुल द्रविड़ के इस संबोधन को ब्रेडमैन व्याख्यान में अब तक दिये गये सभी भाषणों में से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। क्रिकेट मैदान के ‘श्रीमान भरोसेमंद’ द्रविड़ ने अपने संबोधन से यह साबित किया कि इस ‘भारतीय दीवार’ की बौद्धिक योग्यता और सैद्धांतिक मान्यताओं की नींव कितनी गहरी और कितनी मजबूत है।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

शायरी......

हम उन्हें वो हमें, एक दूजे की गलतियों पर इल्जाम देते हैं मगर,

अपने अंदर झांकने का हौसला वो भी नहीं रखते, हम भी नहीं...।


मेरी मज़ार पर ख्वाहिशों का इतना सार लिख देना,

कि एक शख्स जिन्दगी की हसरत में मर गया...।‌


किसी से क्या गिला करना इस जहान में,

शायद हम ही याद के काबिल नहीं रहे।


शहर वाले सजाते हैं, हर झूठ पर रिश्तों के आशियानें,

और हमें पछताना पड़ा है अपने पहले ही झूठे बयान पर।


"नींद से मेरा ताल्लुक ही नहीं बरसों से, फिर

ख्वाब आ-आ कर मेरे छत पर टहलते क्यों हैं..."


आज आईने में अपनी भी सूरत ना पहचानी गयी,

आंसुओं ने आंख का हर अक्श धुंधला कर दिया।


मैं एक खिलौना हॅू, और वो उस बच्चे की तरह है,

जिसे प्यार है मुझसे, पर सिर्फ खेलने की हद तक।


तुम्हें मालूम है जाना कि तुम भी एक कातिल हो,

मेरे अंदर का हंसता हुआ इंसान तुमने मार डाला है।


सूरज को जागने में जरा देर क्या हुई,

चिड़ियों ने आसमान ही सर पर उठा लिया।


आज कल मिलती है हमें बहुत कम फुरसत,

रात सोने में गुजरती है, दिन उठने में है जाता।


"नींद आये तो ख्वाबों का मुकद्दर भी हो रोशन,

जब नींद ही नहीं है, तो फिर ख्वाब कहां के...।"


हवा परेशान है कि आज उसने जुल्फों को क्यों नहीं समेटा

शायद उसकी ज़िन्दगी आज जुल्फों से ज्यादा उलझ गयी है....


खुबसूरत क्या कह दिया उनको, हमको छोड़ कर वे शीशे के हो गए,

तराशा नही था तो पत्थर थे, तराश दिया तो खुदा हो गए ....”\


हम गलत कुछ नहीं करते हैं,

हम तो ज़माने के साथ चलते हैं।


मोहलत तो दे मुझे कुछ... ऐ-वक़्त के मुसाफिर,

तेरी ही यादों से हैं मेरी तकदीर की तस्वीर,

यूँ तो सारा जहाँ हैं खजाने में मेरे,

बस तू ही नहीं मेरे हम-दम ...... मेरे रकीब.....


एक ना तमाम ख्वाब मुकम्मल न हो सके,

आने को जिंदगी में बहुत इंकलाब आये...।


मंदिर में फूल चडाने गया तो अहसास हुआ की....

पत्थरो की ख़ुशी के लिये फुलोंका कत्ल कर आये हम ...

मिटाने गये थे पाप जंहा... वहीं एक और पाप कर आये हम.....


चेहरे अजनबी हो भी जायें तो कोई बात नहीं लेकिन,

रवैये अजनबी हो जाये तो बड़ी तकलीफ देते हैं...।


"मैं जो चाहू तो अभी तोड़ लू नाता तुमसे,

पर मैं बुजदिल हूँ, मुझे मौत से डर लगता है।"


है मिजाज अपना परिंदा, आवारगी-ए-आलम अपना शौक,

पर एक उनकी ख्वाहिश ने, मेरी उड़ान को पाबंद कर दिया...


बेताब दिल का हाल खुद-ब-खुद जाहिर हो जाता है,

जब भी जरा सा जिक्र उस नाम का हो उठता है...।


"बदला हुआ है आज मेरे आंसुओं का रंग,

फिर दिल के जख्म़ का कोई टांका उधड़ गया..."


"किसी का ना समझना भी हमे बहुत दर्द देता है,

बस जो सामने दिखाई न दे उसे लोग माना नहीं करते..."


तेरी सूरत पर मुझे कभी नाज ना था,

कमबकत तेरी सीरत ने दगा दे दिया....


अफवाह कभी दिल-ए-हालात बता नहीं सकते,

जो जाननी हो तबियत तो हमसे मिलते रहा करो...


बीज तब ही बोना जब ज़मीन को परख लेना,

हर एक मिट्टी की फितरत में वफादारी नहीं होती।


इश्क का टुटा वो इमां बेच आया ...

खुदा के डर वो बचपन बेच आया ...


पुराना मंजर...

"आज फिर कुछ पुराना मंजर याद आने लगा है,

उन हसीन लम्हों को सोच मन हर्षाने लगा है।

कभी हर पल की जिद्द पर कोई ख्वाहिश पूरी होती,

आज ख्वाहिशे हैं हल पल बस जिद्द अधूरी सोती!


हमारी शरारतों पर उन दिनों मिलती हमें लोरियों की थाप थी,

आज दिल खोजता उस डांट को, जिसमें कभी दुलार की छाप थी!


जाने क्यों वक़्त दूरियों की इतनी पाबन्द होती है,

कि समय के साथ बदलाव की बाते बुलंद होती हैं,

क्यों नहीं सब रिश्तें हर समय एक समान होते हैं,

क्यो बचपन बीतने पर हम नींद-ओ-चैन खो देते हैं।


जब कभी इन बातो पर आता विचार, होते हम शर्मिंदगी से चूर,

आखिर क्यों अपनों से हैं हम दूर, कि क्यों हम हैं इतने मजबूर...!"

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

बदलते परिवेश में बदलती पत्रकारिता

कल देश गुलाम था पत्रकार आजाद, लेकिन आजदेश आजाद है और पत्रकार गुलाम। देश में गुलामी जब कानून था तो पत्रकारिता की शुरुआत करलोगों के अंदर क्रांति को पैदा करने का काम हुआ। आज जब हमारा देश आजाद है तो हमारे शब्द गुलाम हो गए हैं। कल जब एक पत्रकार लिखने बैठता था तो कलम रुकती ही नहीं थी, लेकिन आज पत्रकार लिखते-लिखते स्वयं रुक जाता है, क्योंकि जितना डर पत्रकारों को बीते समय में परायों से नहीं था, उससे ज्यादा भय आज अपनों से है।

गुलाम देश में अंग्रेजों का शासन था; तब कागज-कलम के जरिए कलम के सिपाही लोगों को यहबताने को आजाद थे कि गुलामी क्या है और लोग इससे किस प्रकार छुटकारा पा सकेंगे। पर आजअगर सरकार या व्यवस्था से कोई परेशानी है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा पाता और कोशिश करने पर निजी जरूरतों का आगे कर कलम की ताकत को खरीदने की कोशिश की जा रही है। बीते समय पत्रकारिता के प्रति लोग शौक से जुड़ते थे लेकिन आज यह शौक जरूरत का रूपले चुकी है और व्यवसाय की परिपाटी का फलीभूत कर रही है। आज एक जुनूनी पत्रकार जब किसीखबर को उकेरता है तो वह खबर उच्च अधिकारियों व अन्य के पास से गुजरते हुए समय के बीततेक्रम में मरती जाती है या फिर लाभ प्राप्ति की मंशा के नीचे दब जाती है। ऐसे में जुनून के साथअपने कार्य को निभाने वाला पत्रकार भी मेहनत पर पानी फिरता देख, केवल खबर बनाने काकोरम पूरा कर पैसा कमाने में जुट जाता है।

पत्रकारिता के इस बदलते स्वरूप का जिम्मेदार केवल पत्रकार का स्वभाव और उसकी जरूरतें हीनहीं है वरन्‌ इसका असली जिम्मेदार हमारा आज का पाठक वर्ग भी है। जो इस बदलते परिवेशके साथ इतना बदल गया है की उसने समाचार पत्र और पत्रकारों के शब्दों को एक कलमकार कीभावनाओं से अलग कर दिया है। इसी का नतीजा है कि आज पत्रकार अपनी मर्जी से कुछ भी नहींलिख सकता है क्योंकि वह अपने पाठक का गुलाम होता है और उसे वही लिखना पड़ता है जोउसका पाठक चाहता है। इससे अलग अगर कोई पत्रकार अपनी जीवटता दिखाते हुए खबर सेतथ्यों को उजागर करने का मन बनाता भी है तो वह खबर समाचार पत्र समूह के उसूलों औरविज्ञापनों की बोली की भेंट चढ़कर डस्टबीन की शोभा बढ़ाती है। अगर इन बातों की छननी से वहखबर छन कर मूल बातों समेत बच जाती है तब कहीं जाकर वह खबर पेज पर अंकित हो पाती है।ऐसे में उक्त पत्रकार भगवान को धन्यवाद देता है कि चलों खबर छप गयी, पर इस खबर के प्रतिपत्रकार की ईमानदारी और मेहनत पीछे छूट जाती है और उसकी जगह संपादक व उच्च अधिकारी की प्रतिबद्धता ले लेती है।

आज की पत्रकारिता पर बाजार और व्यवसाय कादबाव बढ़ गया है। जिस कारण लोगों को जागरूककरने की अपनी आधारशिला से ही मीडिया भटकचुकी है और पेड न्यूज का रूप लेती जा रही है।मीडिया में 'पेड न्यूज' का बढ़ता चलन देश एवंसमाज के लिए ही नहीं अपितु पत्रकारिता के लिए भी घातक है। 'पेड न्यूज' कोई बीमारी नहीं बल्कि बीमारी का लक्षण है। इसका मूल कहीं और है। इस दिशा में सकारात्मक रुप से सोचने कीआवश्यकता है। मीडिया समाज का एक प्रभावशाली अंग बन गया है लेकिन आज इस आधारस्तंभ पर पूंजीपतियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो देश एवं समाज के लिए घातक है।

आज की मीडिया समाज को इस कदर प्रभावित कर चुकी है कि वह चाहे किसी को भी राजा औररंक की श्रेणी में खड़ी कर सकती है। लेकिन विडम्बना यह है कि इतनी शक्ति होने बाद भी मीडियाको हर ओर से आलोचना ही सुननी पड़ती है क्योंकि उसकी दिशा भ्रमित है या फिर ये कहा जाये किवह नकारात्मकता को ही आत्मसात कर चुकी है। हाल फिलहाल की घटनाओं पर नजर दौड़ाये तोगांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे सबसे मजबूत पक्ष के रूप में उभरते हैं पर वास्तविकता कुछऔर ही है। भ्रष्टाचार के मुददे को लेकर अनशन करने वाले अन्ना मीडिया की विशेष कृपा केआधार पर "भ्रष्टाचार' जैसे प्रमुख मुद्‌दे से काफी बड़े हो गये। उनके अनशन के एक दिन पहलेदिल्ली स्थिति जंतर मंतर के पास इलेक्ट्रानिक मीडिया के 74 ओ.वी. वैन के रेले इकट्‌ठा हो गये,जैसे उस दिन प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले हों। मीडिया के इस विशिष्ट मेहमाननवाजीके कारण ही आज गली-गली में अन्ना की धूम मची हुई है। आखिर कौन है यह अन्ना हजारे, क्याकोई महात्मा है?देवदूत है? या फिर सरकार के सामानांतर शक्ति रखने वाले बंदा है? जो देश केलोगों को उसके पीछे चलने की बातें करता है और देश आंख मूदे उसके साथ हो लेती हैं। देश कीआम जनता तो चलों सरकार के निकम्मेपन से त्रस्त थी और बदलाव की बयार के साथ बह चलीपर बुद्धिजीवियों का गढ़ कही जाने वाली मीडिया भी अन्नामय हो चली थी कि जैसे इसमेंमीडियाकर्मियों का अपना स्वार्थ निहीत हो।

कहने को तो पत्रकारिता देश का चौथा स्तम्भ है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिकाजैसे देश के महत्वपूर्ण स्तंभों पर नजर रखने का कार्य करने वाली खबरपालिका आज अपने मूलकार्य से विमुख हो चुकी है। अपने प्रारम्भ में मिशन के तहत लोगों के बीच अपनी भूमिका कानिर्वाह करने वाली पत्रकारिता समय के साथ बदलते हुए प्रोफेशन के रूप में भी परिवर्तित हुई। परिवर्तन का यह दौर यहीं नहीं थमा, वर्तमान समय में पत्रकारिता का स्वरूप कमीशन के तौर परउभरा है। ऐसे में आज की पत्रकारिता को किसी भी तरह से पूर्व के मिशन और एम्बीशन के साथजोड़ कर देखना सही नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और मीडिया भी उसी का पालन कररही है। स्पेक्ट्रम घोटाले बाद तो पत्रकारिता और पत्रकार होने का मतलब भी बदल गया था।अक्सर मजाक के बीच गंभीर मुद्रा में यह कहा जाता कि नीरा राडिया जैसे कारपोरेट लाबिस्टों सेसंबंध रखने वाले ही बड़े पत्रकारों की श्रेणी में आते हैं। कल का यह मजाक अब लोगों केदिलो-दिमाग पर हावी हो गया है, खबरों के अन्वेषण की जगह उसे खरीदने-बेचने का काम चलनिकला है।

वर्तमान की पत्रकारिता को परिभाषित किया जाना हो तो उसे मानवीय संवेदनाओं को बेचने केअनवरत क्रम को शिद्‌दत से फैलाने का उपक्रम की संज्ञा दी जा सकती है। समाचार पत्र हो या फिरखबरिया चैनल सबमें आपस में टीआरपी की जंग छिड़ी हुई है, जिसके चलते सामाजिक सरोकारोंसे अलग केवल सामाजिक विषमता को फलने-फूलने का मौका मिल रहा है। शक्ति का दंभ और स्वयंभू होने के भाव ने आज मीडिया को सामाजिक प्रहरी के स्थान पर निर्णायक की भूमिका मेंदिखती प्रतीत होती हैं। मीडिया के इस चलन ने खबरों के प्रति पाठकों के नजरिये को बदल दियाहै। अब पाठकों के बीच मीडिया सूचना देने के बजाय अपना विचार परोसने में लगी हुई है।

मूलतः पत्रकारिता की प्रक्रिया ऐसी होती है जिसमें तथ्यों को समेटने, उनका विश्लेषण करने फिरउसके बाद उसकी अनुभूति कर दूसरों के लिए अभिव्यक्त करने का काम किया जाता है। ऐसे में इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या,प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है अथवा सुख,शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज कोतय करना होता हैं। वर्तमान में इन विषयों का गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है, जिसकेआधार पर एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। यह इसलिएक्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यहकल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्णजीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता एक संक्रमण के दौर से गुजर रही है।इस क्षेत्र में सुधार के लिए स्तरीय प्रशिक्षण और व्यापक अनुसंधान की जरुरत है। समाज औरराष्ट्रहित में मीडिया को विरोध की सीमा और समर्थन की मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए।उदारीकरण के कारण बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। पत्रकारिता भी इससे मुक्त नहीं है, लेकिनस्थिति पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। यह संक्रमणकाल है। अच्छाई और बुराई के इस संक्रमणमें अन्ततः अच्छाई की विजय होगी, इसके लिए अच्छाई के पक्षधरों को मुखर होना पड़ेगा।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

भौतिकता से ज्यादा मन के रावण को मारने की जरूरत-आकाश राय

दशहरा के पर्व को हम अच्छाई की बुराई पर जीत के रूप में मनाते है। इसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है क्योकि राम और रावण की लड़ाई दसवे दिन रावण के खात्में के साथ समाप्त हुई थी। यह पर्व मनाने के पीछे भी यही सोच निहीत है कि आज के दिन समाज और व्यक्ति के मन से रावण रूपी बुराई का अंत का हो और राम स्वरूप सदविचारो की ही जीत हो। लेकिन फिर भी आज हम सार्थक बातों को नकारात्मक दिशा में मना कर खुश होते हैं।

हमारे विजय दशमी के पर्व को मनाने के पीछे यह सोच कही खो कर रह गयी है कि अच्छाई ही सर्वोपरि है। बल्कि हम यह सोचकर अपनी खुशी को अमलीजामा पहनाते हैं कि बुराई को खत्म करना है। यह सोच भी गलत नहीं है पर बात सार्थकता की है कि क्या यह विचारधारा एक स्वस्थ्य मानसिकता और समाज को पनपने का मौका देगी। अगर हमें कुछ अच्छा करना है तो क्यों किसी के संहार या खात्में की बात हो। क्यो नहीं एक स्वस्थ सोच के साथ अपनी खुशियों को जीया जाये। क्या किसी त्यौहार को मनाने के पीछे यह बौद्धिक स्तर काफी नहीं कि उसमें क्या सकारात्मकता, सार्थकता और समाज को आगे बढ़ने की प्रेरणा आदि जैसी अच्छी बातें निहीत हैं। क्या किसी त्यौहार या पर्व को खुद की प्रगति के बजाय दूसरों की हार से मापा जाना ठीक है। वैसे तो सालो साल से हम दशहरा पर्व मना रहे है तथा रामलीलाओं आदि के माध्यम से इसका प्रचार भी करते है। पर क्या वाकई हम मर्यादापुरुषोतम श्री रामचंद्र के सतकार्य को समझ पाये हैं। क्या हम यह जान पाये हैं कि रामायण पूर्वतः राम के चरित्र और व्यवहार का ही दृश्टिकोण फैलाता है। हमने तो बस अपने मन-मौजीपन में दशहरा में राम का रूप धरे किसी कलाकार को रावण का बध किया जाना ही देखा है। पर वास्तव में आज भी रावण मर कर भी अमर है।

भले ही भौतिकता में हम उसके पुतले को जलाते हैं पर बात के हर लहजें में जिंदा रखे हुए हैं। वह हमारी नफरतों में जिंदा है तथा किसी भी गलत कार्य को परिणित होते देखते है तो उसे रावण की संज्ञा दे देते हैं। पर कभी दैनिक दिनचर्या में किसी के अच्छे कर्म के लिए उसे राम या उनके पदचालक की संज्ञा या उपाधि क्यो नहीं देतें। क्यो ऐसा करने से क्या राम नाम पर दाग लग जायेगा या फिर वह व्यक्ति उस प्रकार की प्रशंसा के काबिल नहीं हेाता। नहीं... बल्कि हमारे दिलो-दिमाग में आज राम से ज्यादा रावण की छवि रम-बस गयी है। जिसे हम बुरा कहकर, उससे घृणा करके भी अपने मन से नही निकाल पा रहे हैं। आज हममें किसी से द्वेश या घृणा के भाव इतने बलवती है कि हम आपसी प्रेम और सौहादर्‌र को भी भूल गये हैं और जब तक हम अपनी सोच में रावण को नहीं मार देते हमारे राम का अस्तित्व केवल शब्दो व नामों में ही बंध कर रह जायेगा।

आज वैसे भी दुनिया में ऐसे राम की संख्या काफी कम है जो कर्तव्य, व्यवहार और संस्कृति से राम शब्द का पालन करता हो। अतः हमे कोशिश कर राम जैसे चरित्र का ही त्यौहारों आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार करना चाहिए। ताकि हमारी नई पीढी एक अच्छे आइडियल पुरूष की कल्पना अपने मन में बसायें और एक सकारात्मक विचार दिशा की ओर अग्रसर हो सके।

(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

अब कहां दोस्त मिले साथ निभाने वाले

अब कहां दोस्त मिले साथ निभाने वाले,

सबने सीखे हैं नये अंदाज जमाने वाले।


दिल जलाओं या दिये आखों के दरवाजों पर,

वक्त से पहले तो आते नहीं आने वाले।


अश्क बन कर मैं तेरी निगाहों में आऊंगा,

ऐ मुझे अपनी निगाहों से गिराने वाले।


वक्त बदला तो उठाते हैं उंगली मुझ पर,

कल तलक हक में मेरे हाथ उठाने वाले।


वक्त हर जख्म का मरहम नहीं हो सकता,

कुछ दर्द होते हैं ता-उम्र रूलाने वाले।


मैं तेरी सोहबत पर रंज भी करूं तो कैसे,

ये रूशवाई भी डालेंगी मेरी दोस्ती में दरारें।


कभी खुद को मानु भी दोषी तो भला क्या हो,

हमने जुर्म ही किये हैं बस तेरे तरक्की वाले।


सोमवार, 26 सितंबर 2011

तीसरे मोर्चे के लिए दिल्ली अभी दूर!

राजनीति में मतदाताओं को लुभाना तथा विकास व सुविधाओं के आश्वासन पर लोगों को मूर्ख बनाने की प्रक्रिया में अब तीसरा मोर्चा भी अपना स्थान तलाशने में जुट गया है । इस बाबत कुछ पार्टियां फिर से एक साथ आने को तैयार दिख रही है। वैसे तो इससे पहले भी वह एक बार हाथ मिला चुकी हैं लेकिन कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकी।

वर्ष 2014 में लोकसभा चुनावों के मद्देनजर तीसरा मोर्चा गठजोड़ बनाने में जुटता नजर आ रहा है। इस बाबत समाजवादी पार्टी और वामपंथी आपस में हाथ मिलाकर सत्तारूढ़ सरकार और प्रमुख विपक्षी पार्टी को पछाड़ने तथा सत्ता में आने की जुगत भिड़ाने में लग गये हैं। हलांकि इस तीसरे मोर्चे की सोच काफी हल्की लगती है क्योंकि न तो इनके पास कोई ठोस मुद्दा है और न ही सरकार को घेरकर सत्ता हथियाने वाला कोई चेहरा। यहां यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर बिना चेहरे और मुद्दे के कोई भी गठबंधन सत्ताशीन कैसे हो सकता है?

राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो अन्य मोर्चा के लिए अभी भी परिस्थितियां प्रतिकूल नहीं है कि वह लोकसभा स्तर पर कांग्रेस या भाजपा के हाथों से सत्ता का मांझा खींच सके। फिलहाल कांग्रेस और भाजपा ही सत्ता के लिए प्रमुख उम्मीदवार हैं, जिनके मांझे पर जनता के विश्वास का शीशा पूरी मजबूती के साथ जुड़ा हुआ है। ऐसे में वह किसी भी तीसरे मोर्चे के सूती धागे को आसानी से कांट देंगे। जबकि तीसरे मोर्चे को मजबूती से सामने लाने की कवायद के बीच भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा का कहना है कि दोनों प्रमुख पार्टियां (कांग्रेस व भाजपा) जब जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को ठीक से नहीं निभा रही हैं तो एक विकल्प के तौर पर तीसरे मोर्चे को लाना आवश्यक हो जाता है। इस लिए भाकपा अपने विचारों और देश के प्रति समर्पित विचारों वाली पार्टियों को एकत्रित करने में जुट गयी है।

तीसरे मोर्चे के लिए लामबंद हो रहे लोगों के बारे समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा कि वर्तमान राजनीतिक परिवेश में तीसरा मोर्चा ही समस्याओं से हलकान जनता के लिए राहत लायेगी। वहीं तेलगुदेशम पार्टी के नेता नामा नागेश्वर राव ने कहा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनकी पार्टी भी अन्य समान विचारधारा वाली पार्टियों की भांति ही सोचती है। इसके लिए भ्रष्टाचारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने की वकालत भी करती हैं। ओ़डिशा में शासन कर रही बिजद वैसे तो वैचारिक तौर पर भाजपा और कांग्रेस से काफी अलग है पर तीसरे मोर्चे के लिए उसने अभी कोई मन नहीं बनाया है। वहीं तमिलनाडु में पूर्व में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) का कांग्रेस के साथ गठबंधन रहा है, अब सत्ता में आई अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम(एआईआईडीएमके) राज्य में लेफ्ट के साथ जुड़ी हुई है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर एआईआईडीएमके का भाजपा के साथ गठबंधन की संभावना ज्यादा हैं।

भाजपा और कांग्रेस से इतर बाकी सारी छो़टी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों के विचारों एवं उनकी कार्यप्रणालियों को देखते हुए राजनीतिक विशेषज्ञों का यही कहना है कि अभी तीसरा मोर्चा किसी प्रकार की शक्ति प्रदर्शन के लायक नहीं है। जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त के प्रोफेसर निसार उल हक का कहना है कि तीसरे मोर्चे का प्रदर्शन इस लिए दमदार नहीं होगा क्योंकि वर्तमान में वामपंथी खुद चोटिल हैं तो वह औरों को कैसे मजबूत करेंगे। इसी प्रकार, राजनीतिक विश्लेषक जी.वी.एल. नरसिम्हा राव का कहना है कि बीते हालातों को देखते हुए अब जनता भी सावधान हो गयी है। इस लिए वह भी तीसरे मोर्चे पर दाव लगाने की नहीं सोच रहें कि कुछ दिनों बाद ही यह मोर्चा फिर अस्थायी स्थिति बना देगा। विदित हो कि 1996 में देवगौड़ा के नेतृत्व में बनी तीसरे मोर्चे की सरकार अपना कार्यकाल दो साल भी पूरा कर सकी।

तीसरे मोर्चे की प्रमुख पार्टियों की स्थितियां भी पहले से तो बेहतर है पर ज्यादा प्रभावी नहीं हैं। समाजवादी पार्टी जहां केवल उत्तर प्रदेश में मजबूत हैं,जहां कुछ 545 लोकसभा सीट में 80 सीटे हैं। इसी प्रकार वामपंथ का केरल (20) और पश्चिम बंगाल (42) को छोड़कर कहीं भी आधार नहीं है। ऐसे में बिहार में अस्तित्व तलाश रही राष्ट्रीय जनता दल व लोकजनशक्ति पार्टी से तीसरे मोर्चे को बहुत अधिक उम्मीद नहीं है। सत्ता में बने रहने की लालसा लिये इन क्षेत्रीय पार्टियों का तीसरे मोर्चे से जुड़ने की संभावना कम ही है। ऐसा ही कुछ हाल जनता दल-सेकुलर और जनता दल यूनाइटेड का भी है। ऐसे में आपसी खींचतान के बीच कुछ एक पार्टियां मिलकर तीसरे मोर्चे को मजबूती नहीं दे पायेगी।

एक अन्य राजनीतिक जानकार भास्कर राव का कहना है कि दिल्ली की सत्ता से विरोध के भाव क्षेत्रीय पार्टियों को एक साथ तो ला सकते हैं लेकिन यह पार्टियां विकल्प के तौर पर नहीं उभर सकती। मुद्दों और साफ छवि के कद्दावर चेहरे की कमी के कारण ही तीसरे मोर्चे की भारतीय जनमानस के बीच अपनी पैठ बनाने की संभावना न के बराबर है।


शनिवार, 24 सितंबर 2011

"चिंगारी कहीं आग में ढलती ना चली जाये"

चिंगारी कहीं आग में ढलती ना चली जाये,

गर्मी-ए-सियासत कहीं बढ़ती ना चली जाये।


खा तो रहा हैं मुल्क रोज जख्मे-सियासत,

ये चोट हैं, नासूर में ढ़लती ना चली जाये।


सर कटाया था जिसको बचाने के वास्ते,

डर हैं कहीं आज वो पगड़ी ना चली जाये।


बढ़ तो रहें हैं तेरे सितम पर ये सोच ले,

मेरी भी हिम्मत कहीं बढ़ती ना चली जाये।


सोये हैं इस कदर तेरे ख्वाबों की चाह में,

कहीं नींद ये आँखों में चुभती ना चली जाये..।"


ख्वाहिश हम भी सजा बैठे...

"ख्वाहिशों की महफील थी यारों,

एक ख्वाहिश हम भी सजा बैठे,

उसे पाने की ख्वाहिश को,

दिल की ख्वाहिश बना बैठे।


उसके चेहरे पे एक नूर था,

जिसने नूर ही नूर में, हमें बेनूर कर दिया...


दिल भागा सीने से निकल कर, ऐसा की यारों,

कम्बख्त ने हमें, टकटकी लगाने का मजबूर कर दिया।


हर एक लम्हें में, सीने से निकली थी दुआयें...

दुआओं ही दुआओं का, काफिला चल पड़ा...


हर एक दुआ में, खुदा से मांगा उसे... और फिर...

रो-रो कर उसे मांगने का, सिलसिला चल पड़ा...।"


गुरुवार, 22 सितंबर 2011

खुदाई का आलम...

"हो जाये असर कोई शायद दुआओं से

ये दर्दे-जिगर बढ़ने लगा हैं दवाओं से


हैं इश्क गर तो बाजियाँ दिल की ही लगेंगी

डरते हो मियाँ इतने भला क्यूँ खताओं से


नजरे बचा के देखता हूँ सबसे उसे रोज

मुझे देखता हैं वो भी तिरछी निगाहों से


रातों में जागते हो मेरी नींदों में आकर

दिन में भी निकलते नहीं हो तुम निगाहों से


आकर के मेरे दर से वापस ना चले जाना

तुम को ही हर रोज माँगा हैं खुदाओं से......"


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