रविवार, 14 फ़रवरी 2010

वो कैसा शख्स है ...



वो कैसा शख्स है की हर रोज सजा देता है
फिर हंसाता है वो इतना की सब भुला देता है

कभी जो रो दे तो मुझ को भी भूल जाता है
और फिर भूल के मुझ को भी रुला देता है

हमारे पास न आने की क़सम खा कर वो
“आजा ” लिखता है वो कागज़ पे उड़ा देता है

उससे पूछो की बताये किससे मुहब्बत है तुम्हें
नाम सरगोशी में मेरा ही सुना देता है

कभी कहता है चलो साथ हमेशा मेरे
चल पड़े साथ तो रास्ता ही फिरा देता है

खुद ही कहता है न दोहराओ पुरानी यादें
मैं न दोहराऊँ तो फिर खुद ही सुना देता है

खुद ही लिखता है की जज़्बात में हलचल ना करो
और फिर खुद ही नयी आग लगा देता है …!!!

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

संवादों ने जीता दिल …. शायद आत्मा भी जगाई


गलती का मौत दंड है , रण है …..

यह फिल्म रण के एक गीत की वह पंक्ति है जो कहानी के अनुसार मीडिया की महत्ता को दर्शाती है की अगर मीडिया ने गलती की तो मतलब सब ख़तम। वैसे तो फिल्म में कई ऐसी खासियते हैं जिन्हें अगर हम आत्मसात करे तो हमारा नैतिक विकास ही होगा । उनमे से कुछ खास संवाद निम्न हैं -


1- कुछ चुनिन्दा अवसरवादी लोगो की कट्टरपंथी सोच का नाम ही कौमी नफरत है

इस संवाद ने शायद सभी को एक बार तो यह सोचने को मजबूर कर ही दिया होगा की ये वाकई सच है । और उस पल हमारे मन की साड़ी कद्वाहते ख़तम हो गयी होंगी ।


2- कोई हिन्दू-मुस्लिम नहीं होता बस लोग होते हैं अपने-अपने तरीके से जीवन जीना ही धर्मं है

यह संवाद विचारों की मंथन चासनी में काफी पाक कर ही कागज़ पर आया है । लेखक भी अक्सर सोचता रहता होगा की आखिर ये धर्मं है क्या ? क्या दो लोगो के बीच विषमता की परिभाषा ही धर्मं है ?


अगर किसी भी धर्मं या जाती के दो लोगो को आपस में बदल कर एक-दुसरे के स्थान पर रखा जाएऔर सारे काम उन्हें दुसरो की तरह करने हो तो भला कौन कह पायेगा की अब वह हिन्दू-मुस्लिम याकिस अन्य जाती का है बल्कि वह सिर्फ एक इंसान है, हाड-मांस का बना जो हमारी-आपकी तरहकेवल खुद का पेट पालने के लिए काम करता है उसे ना तो दुनियादारी की चिंता है ना किसीधर्मं-जाती की , वह बस काम करता है और अपने मालिक से चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लमान अपनीमजदूरी ले घर को आता है

समाज का आईना अब सामाजिक बदलाव को जागरूक

कहने को तो फिल्मे समाज का आईना होती हैं . परदे पर वही कहानी दिखाई जाती है जो वास्तविकता में इंसानों के जीवन में घटित होती है कभी-कभी ऐसा लगता है की परदे पर प्रस्तुत हो रहा व्यक्तित्व किसी भी प्रकार से आम लोगों से मेल नहीं खता। क्या कभी ऐसा देखा गया है की हालिया हित फिल्म ‘3 idiot’ के किरदार रेंचो की तरह किसी ने इंजीनियरिंग कॉलेज में अपने तेअचेर की नाक में दम किया हो और उसे कॉलेज से निकला ना गया हो , क्योंकि वो किसी रसूखदार घर से ताल्लुक रखता है । जबकि वास्तविक जीवन में ऐसा होने की स्तिथि में तुरंत कॉलेज से फरमान जारी होता है और छात्र का पुलिंदा बांध जाता है।


ठीक इसी प्रकार रण फिल्म में भी एक ससेने दिखाया जाता है की एक मीडिया परसों जो की एक राजनीतिक हस्ती से भी ज्यादा प्रमुख है । जिसकी एक रिपोर्ट ने सर्कार बना दी और फिर गिरा दी । मन मीडिया में करिश्माई ताकतें हैं पर क्या इतना खरा स्वरुप किसी सामजिक इंसान का है … तो इसका एक ही जवाब मिलेगा की नहीं । लेकिन यह एक प्रयास है की किसी भी तरह से सामाजिक तंत्रों में सकारात्मक परिवर्तन की बयार लायी जाए । तभी तो विधु विनोद चोप्रा और हिरानी जी ने पढाई के सही तरीके को जहाँ आगे बढ़ाते हुए कामयाबी से ज्यादा काबिलियत को तवज्जो दी , वहीँ राम गोपाल वर्मा ने अमिताभ बच्चन जैसे शशक्त कलाकार को परदे पे उतार कर मीडिया के लिए सही दिशा में आगे आने का मार्ग दिखाया ।


अक्सर ऐसा होता है की मसाला फिल्मो से अलग किसी सन्देश को लेकर प्रचारित होती फिल्मे फ्लॉप हो जाती हैं पर उसका सन्देश पूर्णतः बेकार जाए ऐसा कभी नहीं होता । तभी तो सभी प्रकार के ड्रामे के साथ हसी-मजाक में आमिर ने मन की सुनकर कैरीअर बनाने की बात कही और लोगो ने इसे सराहा । विजय हर्षवर्धन मालिक के किरदार ने भी सार्थक पत्रकारिता की लड़ाई लड़ी , जिसकी मशाल पूरब शास्त्री (रितेश देशमुख ) जैसे युवा के हाथो में थमा दी ताकि जर्नलिज्म को सही दिशा में ले जाने के लिए युवा उत्तरदाई बने ना की टीरपी को लक्ष्य बनाये ।


इस प्रकार ये साबित हो गया की अब हमारा सिल्वर स्क्रीन मसालों की तड़क भड़क के बीच समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता के साथ भी अपने कदम बाधा रहा है। जो शायद आने वाले भविष्य में हमारी नई पीढ़ी को नया तजुर्बा सिखाये।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

हम और आप सिर्फ कहते हैं...

हम और आप सिर्फ कहते है और सिर्फ कहते ही है कि हमारी सरकार नाकाम है, निकम्मी है, कामचोर है, कुछ नहीं करती है, यहां कानून कोई मायने नहीं रखता है। कानून रसूखदारों और सत्तासीनों की रखैल से ज्यादा कुछ नहीं है। जल बोर्ड का पानी घर की बजाय नालियों में जाता है। नगर निगम सफाई नहीं करता है। फोन महिनों ठप्प पड़े रहते है। सड़के टूटी पड़ी रहती है लेकिन कागजों में सेंकड़ों बार बन जाती है। ट्रेनों के आने जाने का समय हमें सदी का सबसे बड़ा मजाक लगता है। हम सिर्फ कहते है और सिर्फ कहते है।


लेकिन जब हम और आप विदेश जाते है तो सिगरेट के ठूंठों को लंदन की सड़कों पर नहीं फेंकते है। न्यूयोर्क की सड़कों पर गलत साइड चलाने पर ट्रेफिक के हवलदार को जानता नहीं मैं फलां का साला हू की धमकी नहीं देते। रोम की दीवारों पर भी खैनी खाकर नहीं थूकते। जबकि अपने देश में हम इंतजार कर रहे है किसी मिस्टर, मिस एंड मिसेज सुपर क्लीन का। क्या यह संभव नहीं है कि हम खुद ही कुछ छोटा-छोटा सा, थोड़ा- थोड़ा सा योगदान दे दें? यदि आपका जवाब हां है तो पहल कीजिए अपने आप से। ताकि बना सकें एसा समाज जैसा हम चाहते है। संस्कार अपने बच्चों को देना चाहते है, क्योंकि जैसा आज आप बोएगें, कल वैसा ही अपने बच्चे काटेगें।

चैनलों की भीड़ में भी अखबार का सर ऊँचा

'खींचो ना कमानों को, ना तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ अकबर इलाहाबादी की यह लाइनें आज भी उतनी ही अर्थपूर्ण है जितनी कि उस जमाने में, जब ये लिखी गई होंगी। इसे कोई नकार नहीं सकता इसका प्रमाण है कि संसद में आज भी आए दिन विभिन्न विषयों पर अखबारों की रिर्पोटों को बतौर उदाहरण रखा जाता है।

29 जनवरी 1780 को पहली बार कलकत्ता से प्रकाशित भारत के प्रथम अखबार ’बंगाल गजट’ के जन्म दिवस के रूप में 29 जनवरी को ’न्यूजपेपर डे’ मनाया जाता है। ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि खबरिया टीवी चैनलों की 24*7 खबरों की आंधी में अखबार खत्म हो जाएगा ऐसे लगाये गये सभी कयासों को अखबारों ने झूठा और तर्कहीन साबित कर दिया है। खबरिया टीवी चैनलों पर खबरों के नाम पर ब्रेकिंग न्यूज, फिल्मी प्रोग्रामों के लटके झटके, विभिन्न तरीकों से भाग्य बांचते बाबा और सुंदरियां, खोजी पत्रकारिता के नाम पर नेताओं के बेडरूम में तांक झांक, के साथ सबसे तेज खबर परोसने के दावों के बीच अखबारों के पाठक संख्या में न सिर्फ दिन प्रतिदिन इजाफा हो रहा है बल्कि इसकी साज सज्जा, ले आउट, प्रस्तुतिकरण और कंटेट में भी तेजी से निखार आता जा रहा है। इंटरनेट के इस युग में अखबार ने भी अपने आप को समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की ठान रखी है। बात चाहे अखबारों के ई- संस्करणों की हो या मार्केटिंग स्ट्रेटजी की, अखबार कहीं भी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे है।

यह प्रेक्टिकल बात है इस पर गौर करने की भी जरूरत है कि मौजूदा समय में अखबार को जो सबसे ज्यादा चुनौती इंटरनेट से मिल रही है और उसी इंटरनेट को भी अखबार ने अपने प्रसार का माध्यम बना लिया है। अखबारों के ई- संस्करण निश्चित तौर पर पर्यावरण के अनुकूल है, वृक्षों की भी बचत हो रही है। बावजूद सभी चुनौतियों के अखबार का वजूद अब भी हमारे देश में बहुत मजबूत है और आने वाले समय में इजाफे की पूरी संभावनाएं दिख रही हैं। बाजारीकरण के इस दौर में अखबार के सामाजिक दायित्वों और सरोकारों पर मुनाफाखोरी, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, भौतिकवाद, नंबर वन की रेस हावी होती दिख रही है, साथ ही साथ संपादकों पर मार्केटिंग कर्मियों को तबज्जों अस्वस्थ परंपरा की नींव रख रहा है। आज वही छापा जा रहा है जो बिकाऊ है।

एक वरिष्ठ पत्रकार ने अखबारों पर हावी होते बाजारवाद पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि समाचार वो है जो विज्ञापन की पीठ लिखा जाता है। कुछ को छोड़कर सभी अखबार बड़े बड़े कॉर्पोरेट घरानों के व्यवसायिक प्रतिष्ठान है जो उनके कई अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के साधन मात्र भी है। कई अखबार सिर्फ स्कीमों के दम पर बिक रहे हैं। साल भर के लिए अखबार की बुकिंग दीजिए तो एक झोला गिफ्ट में साथ मिलेगा जिसकी कीमत साल भर के अखबार की कीमत से अधिक बताई जाती है। मार्केटिंग का गणित, मार्केटिंग वाले इस तरह पाठक (याने कि उपभोक्ता) को समझाते है कि कीमत के एवज में झोला पाआ॓, रद्दी बेच कर मुनाफा कमाआ॓, फ्री में अखबार पढ़ो। ये केवल इस लिए की अखबार आपको अपनी ओर आकर्षित कर सके और आप कहीं और ना भटके ....

Pages